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________________ ३०६ चारित्र चक्रवर्ती पजत्तियाओ॥६॥" सूत्र सं. ६२ इस प्रकार है-“मणुसिणीसु मिच्छाइट्टि-सासणसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पजत्तियाओ, सिया अपजत्तियाओ॥" एक बात और विचारणीय है कि यदि भावभेद की अपेक्षा कथन माना जाय, तो भाव स्त्री के पर्याप्त तथा अपर्याप्त अवस्था में मिथ्यात्व, सासादन गुणस्थान के समान सयोगकेवली गुणस्थान का भी उल्लेख होना आवश्यक था, कारण केवली के समुद्घात काल में अपर्याप्तपना भी पाया जाता है। इसका उल्लेख नहीं होना भी इस बात का निश्चायक है कि यह प्रकरण द्रव्यस्त्री का ही है। आचार्य महाराज के द्वारा जैसे हरिजन मंदिर प्रवेश संबंधी भ्रम दूर हुआ, उसी प्रकार संजद शब्द के विषय में भी प्रकाश प्राप्त हुआ व ऐसे ही और भी बातों पर महत्वपूर्ण समाधान प्राप्त होता था। महाराज का जाप ध्येय एक दिन आचार्य महाराज कहते थे, “अब हमारी निद्रा बहुत कम हो गई है।" मैंने पूछा महाराज, “तब आप क्या करते हैं।" । महाराज ने कहा, "हम तत्त्वों का विचार करते हैं या जाप करते हैं।" उन्होंने यह भी कहा था, "जब हम लम्बे उपवास करते हैं, तब तत्त्व चिंतन में चित्त बहुत लगता है।" महाराज ने कहा था "हम जाप अपने रोग को दूर करने को नहीं करते हैं। रोग शरीर में है। शरीर हमारा नहीं है, अत: रोग की क्या चिन्ता करना?" महाराज ने कहा, "यह शरीर ही रोगमय है, शास्त्रों में एक कथा आई है। एक मुनि के शरीर में भयंकर रोग उत्पन्न हो गया था, इससे असह्य दुर्गन्ध निकला करती थी। उस समय एक विद्याधर दंपत्ति का वहाँ आना हुआ, विद्याधर दंपत्ति ने मुनि के शरीर पर अत्यंत सुवाससंपन्न केशर का लेप करके अपने इष्टस्थान को प्रस्थान किया। वापिस लौटते समय उनके मन में मुनिराज के पुन: दर्शन की लालसा उत्पन्न हुई, तो यहाँ अद्भुत दृश्य देखते हैं। उस सुवास के कारण अनेक भ्रमरों ने आकर शरीर को बहुत पीड़ा पहुँचाई। अत: उन्होंने सुवासपूर्ण केशर की राशि बाहर एक जगह डाल दी, इससे भ्रमर पंक्ति वहाँ गुंजार करने लगी, इस प्रकार उनका उपसर्ग दूर हुआ और तत्काल उन्हें केवलज्ञान हो गया।" महाराज में सम्यक्त्व के अंगों का सद्भाव आचार्य महाराज का जीवन लोकोत्तर रहा है। निकट से निरीक्षण करने पर सम्यक्दर्शन के आठ अंगों का अस्तित्व सुस्पष्ट रूप से उनके जीवन में दिखाई देता है। निःशंकित अंग तो स्पष्ट है। जिनेन्द्र के कथन में न तो रंचमात्र संदेह है और न किसी प्रकार का भय विद्यमान है। आकांक्षा का भी नामोनिशान नहीं है। श्रद्धा को विचलित करने के अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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