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________________ ३१५ चारित्र चक्रवर्ती अन्य प्रकार की अनुकूल सामग्री प्राप्त होती है। इस सामग्री की अनुकूलता को ही दैव की कृति कहा गया है, कारण कि यह बुद्धिपूर्वक किए गये पुरुष प्रयत्न द्वारा साध्य नहीं है। पुराकृत कर्म को दैव कहते हैं। प्राक्तन कर्म की अनुकूलता आज के पौरुष के आधीन कैसे कही जा सकती है ? इसी से सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिए दैव अर्थात् पूर्व कर्मोदय की अनुकूलता आवश्यक है। यदि पूर्व कर्मोदयवश जीव असंज्ञी पर्याय में है, तो वह कभी भी सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त कर सकेगा। यदि उसके अपर्याप्त नामकर्म का उदय है, तो भी वह उस तिथि को प्राप्त नहीं कर सकेगा। संज्ञीपना, पर्याप्तपना, आदि कर्मोदय के अधीन है। कर्मों का अनुकूल उदय तथा विशिष्ट रूप से पूर्णतया निरपेक्ष पुरुषार्थ इष्टसाधक नहीं होता है। पंचाध्यायी का कथन बड़ा मार्मिक है। दैव से कालादि की संलब्धि होने पर, संसार सिन्धु के समीप आने पर व भव्यभाव के विपाक होने पर जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता इससे स्पष्ट होता है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति में दैव-प्राक्तन कर्म की अनुकूलता कारण है। जिनके मन में यह संदेह रहा हो कि हमारे पोषण से- बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से सम्यक्त्व होता है, इसमें दैव का सम्बन्ध नहीं होता, उनका समाधान पंचाध्यायी के इन शब्दों से हुए बिना न रहेगा “प्रयत्नमंतरेणापि दृङ्-मोहोपशमो भवेत् ।।" ३७६ - बिना प्रयत्न के भी दर्शनमोहनीय का जीव उपशम होता है। आत्मा की कथा कहना, श्रुत का अभ्यास करना, गुरुका सानिध्य मिलना, जिनबिम्ब का दर्शन आदि सम्यक्त्व के निमित्त हैं, किन्तु अन्तरंग में कर्म की अनुकूलता आवश्यक है। संसार के जीव समनस्क होने पर मनोयोगपूर्वक काम करते हैं, ऐसे मनोयोगपूर्वक कार्य करने से भी सम्यक्त्व प्राप्ति का . निश्चय नहीं होता है। जैसे बिजली का बटन दबाते ही प्रकाश होता है, इसी प्रकार प्रयत्न करते ही सम्यक्त्व का प्रकाश नहीं मिलता है। जिस जीव का संसार परिभ्रमण पूर्ण हो जाता है, उसके अन्धकारमय मोही जीवन में स्वयं आत्मप्रकाश का दर्शन होने लगता है, जैसे प्रभात में सूर्योदय के समय समीप आने पर अन्धकार स्वयं ही दूर होने लगता है। सम्यक्त्व की निधि पाने के पश्चात् भी मोक्षमार्ग में उन्नति के लिए दैव की अनुकूलता आवश्यक रहती है, जैसे सम्यक्त्व होने पर भी महाव्रत को धारण करने के लिये पुरुष पर्याय तथा पिण्ड शुद्धि आदि की आवश्यकता पड़ती है, वैसे ही सद्गुरु देहि जगाय, मोह नींद जब उपशमै। तब कछु बनै उपाय, कर्मचोर आवत रुकै॥ दैवात्कालादिसंलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे । भव्यभाव विपाकाद्वा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥३७८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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