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________________ ३०७ चारित्र चक्रवर्ती यदि प्रतिलिपि में शोधन की विवेक दृष्टि न रखी जाय, तो बड़े-बड़े संपादक विद्वानों को नियुक्त करने का क्या प्रयोजन रहता है ? 'मक्षिका स्थाने मक्षिका' की नीति से बड़ा अनर्थ हो जाता है। धवल शास्त्र की आरा की प्रति में तिर्यंचों के संजद' शब्द का उल्लेख आया है। तो क्या पशुओं को चौदह गुणस्थानवर्ती मान लेना होगा? धवलग्रंथ की अमरावती में मुद्रित प्रति में सम्यक्त्व मार्गणा का वर्णन करने वाले १६४ नंबर के सूत्र में क्षायिक सम्यक्त्वी का पाठ नहीं लिखा है : ___मणुसा असंजद-सम्माइटि-संजदासंजद-संजदट्ठाणे। अत्थि सम्माइट्ि वेदय-सम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी॥ १६४, धवला पु. १॥ पाँच प्रकाण्ड विद्वानों की तीक्ष्ण दृष्टि से संपादित ग्रंथ के मूल प्रकाशन में त्रुटि हो सकती है, तो ऐसी भूल अन्यत्र होजाना क्या सम्भव नहीं है ? जब ताड़पत्र की प्रति में अनेक त्रुटियाँ पाई जाती हैं, तब सूत्र नं. ६३ में संजद शब्द की त्रुटि का होना असम्भव नहीं है। संजद शब्द में क्या बाधा यहाँ यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि संजद शब्द के मानने में क्या बाधा है ? इस संबंध में आचार्य महाराज ने सूक्ष्म विचार किया। वर्षों चिन्तन किया है। अनेकों रात्रियाँ इस विचार में निमग्न हो निद्राहीन व्यतीत की हैं। उनका कथन है कि “षट्खंडागम के सूत्रों में द्रव्य तथा भाव का वर्णन है। एकेन्द्रिय का कथन दो, तीन आदि इंद्रिय वाले जीवों का कथन है। जब इनका कथन है, तब द्रव्य स्त्री का कथन करने वाला सूत्र बताओ।" "तीर्थंकर की माता सदृश स्त्रियों का वर्णन ग्रंथकार भूल जाय और निगोदराशि तक का कथन करें, यह बात संभवनीय नहीं है। यदि ग्रंथ में द्रव्यस्त्री का वर्णन कहीं आया होता, तो सूत्र ९३ में विवाद ही नहीं होता। वही महत्व का सूत्र है, जिसमें द्रव्य का कथन है। टीकाकार वीरसेन स्वामी ने द्रव्य भाव का वर्णन अपनी टीका में किया है, इससे उनके कथन के विषय में भ्रम नहीं रहता, किन्तु सूत्रकार के शब्दों में द्रव्यस्त्री का कथन यदि न माना जाय तो ग्रंथकार का अपूर्ण वर्णन कहा जायगा और यदि द्रव्य स्त्री का कथन मानते हो, तो संजद शब्द का सद्भाव मानना दिगम्बर संस्कृति के प्रतिकूल है। स्त्री के दिगम्बरत्व नहीं होता है, फिर भी द्रव्यस्त्री के संयतपना माना जाय, तो सवस्त्र मुक्ति माननी पड़ेगी। इससे दिगम्बर धर्म का लोप हो जाता है।" बड़ी बाधा ___"तर्क की अपेक्षा यह भी कहा जाय कि ६३ नम्बर के सूत्र से संजद शब्द नहीं निकालनाथा, कारण वहाँभाव की अपेक्षा वर्णन था, तो कोई विशेष तत्त्व का घात नहीं होता कारण भावस्त्री के चौदह गुणस्थानों का वर्णन अनेक जगह आ ही गया है। अत: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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