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________________ २८३ चारित्र चक्रवर्ती अत्याचार को प्रेरणा देती है। ऐसे ही धर्मान्धों के कारण ऐसे चिन्तक-वर्ग का जन्म हुआ, जो उन्नति का प्राथमिक कदम ऐसे धर्मों से छुटकारा पाने को मानता है। पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है-“ मजहब में मेरे लिए कोई आकर्षण न था। इसने बहुत-से ऊँचे किस्म के मर्दो और औरतों को पैदा किया है और साथ ही तंग नजर और जालिम लोगों को भी” (हिन्दुस्तान की कहानी, पृ. १७)। अत्याचारी बहुसंख्यक वर्ग जब चाहे तब शांतिप्रिय अल्पसंख्यकों को कष्ट में डाल सकता है। धर्मान्ध भगवान् को भूल जाता है। वह तमोगुणी आसुरी वृत्ति का हो जाता है। सर्व परिस्थिति का पर्यालोचन कर अत्यंत अनुभवी आचार्य महाराज ने सोचा, अंतरात्मा ने उन्हें कड़ा कदम उठाने की प्रेरणा की। उन्हें यह प्रतीत हुआ कि यदि चुपचाप बैठे रहे, तो अत्याचारी लोग प्रत्येक जैनमंदिर में हरिजन-मंदिर-प्रवेशाधिकार के नाम पर घुसेंगे और अवसर पड़ने पर महत्वपूर्ण जिनमंदिरों को हजम कर लेंगे। उन्होंने किसी से परामर्श नहीं किया। भीष्मप्रतिज्ञा __इमरसन ने लिखा है- “Every great man is unique" (प्रत्येक महापुरुष अपूर्व होता है), इसलिए इन लोकोत्तर महात्मा ने जिनेंद्र भगवान् को साक्षी करके प्रतिज्ञा कर ली कि “जब तक पूर्वोक्ति बंबई कानून से आई हुई विपत्ति जैनधर्म के आयतनों-जिन मंदिरों से दूर नहीं होती है, तब तक मैं अन्न नहीं ग्रहण करूँगा।" इस समाचार ने देशभर में फैलकर जैनसमाज मात्र को चिन्ता के सागर में डुबा दिया। फलटण से हमारे पास तार से समाचार आने पर आँखों के सामने अंधेरा छा गया। शीघ्र ही बम्बई में अगस्त सन् १९४८ के अन्तिम सप्ताह में प्रमुख जैनबंधुओं की एक बैठक हीराबाग की धर्मशाला में हुई। इसके अनन्तर एक सितम्बर को सरसेठ भागचन्दजी सोनी, सेठ राजकुमारजी इन्दौर, श्री तलकचंद शाह वकील के साथ हम फलटण पहुंचे। __ सबने महाराज से प्रार्थना की कि राजनीति का यंत्र मंद गति से चलता है। कायदे की बात का सुधार वैधानिक पद्धति से ही होगा। यह बात बहुत समयसाध्य है। अतः आप अन्न ग्रहण कीजिए । सारा समाज आपकी इच्छानुसार उद्योग करेगा। धर्माचार्य की दृष्टि __महाराज ने कहा-“हमने जिनेंद्र भगवान् के सामने जो प्रतिज्ञा कर ली है क्या उसे भंग कर दें ?"हम सब लोग चुप हो गये। हजारों व्यक्तियों ने आचार्यश्री की प्रतिज्ञापूर्ति पर्यंत अनेक संयम सम्बन्धी नियम लिए। जो लोग यह सोचते थे कि मुनियों को राजनीति में न पड़कर आत्म-हित करना चाहिए, उनको महाराज कहते थे-“जैनधर्म के मुख्य अंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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