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________________ प्रभावना २७८ भगवान् की वाणी है। आगमपंथी बनना कल्याणकारी है आचार्य शान्तिसागर महाराज ने आगम के अनुसार धर्म का उपदेश दिया है। उनका एक ही पंथ है, वह है निर्ग्रन्थ पंथ। रूढ़ि-परम्परा के बीच में निमग्न व्यक्ति को सम्यक्त्व पथ पर लगाना साधारण व्यक्ति का काम नहीं है। यह तो आचार्य महाराज की असाधारण आत्मशक्ति तथा प्रभाव है, जो उन्होंने सर्वत्र आगमोक्त पद्धति का प्रचार करा दिया है। पंथभेद के झगड़े के अवसर पर महाराज से कोई मार्ग पूछता था, तो वे आगम का मार्ग भर बता देते थे। उस निमित्त से वे संक्लेश की सामग्री नहीं इकट्ठी करते थे। वे सूर्य के समान कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य पथ का प्रदर्शन कर देते थे। आत्मकल्याण के प्रेमी तत्काल उनके कथन को शिरोधार्य करते थे। जो जयपुर धार्मिकता का किला था, वह शिथिलाचार प्रचुर होता जा रहा था। उस समय आचार्य महाराज ने अपनी सन्मार्ग देशना द्वारा बहुतों को धर्ममार्ग में स्थिर किया। विघ्नों के विषधरों से वे विचलित नहीं हुए। सदाचार को लुप्त करने वाली प्रवृत्तियों के विरोध में उन्होंने निर्भय होकर उपदेश दिया व प्रचार किया। उनके समक्ष जनता के संतोष और प्रसन्नता के स्थान में आगम की आज्ञा का पालन करना मुख्य कार्य था । आज महाराज के युक्तिपूर्वक कथन तथा अपूर्व प्रभाववश जो जयपुर तथा अनेक स्थानों के लोगों ने शुद्ध खानपान की प्रतिज्ञा ले ली थी, उसके कारण मुनियों तथा उच्च श्रावकों को प्रत्येक स्थान में अनुकूलता दिखाई पड़ती है, अन्यथा आज के युग में शुद्ध प्रवृत्ति वाले परिवारों को प्राप्त करना बड़ी समस्या रहती। दिल्ली चातुर्मास के समान जयपुर में भी आचार्यश्री का संघ बोरडी का रास्ता, पाटोदी का मंदिर आदि विविध स्थानों में रहा था, इससे उस विशाल नगर की यत्र-तत्र बिखरी हुई समाज को धर्मलाभ हो सका। चातुर्मास का कार्य जयपुर में चातुर्मास व्यतीत करके आचार्य संघ ने रत्नत्रय धर्म का खूब उद्योत किया तथा अनेक निकट भव्यों को संयम-सुधा का पान कराया। अब तक के चातुर्मासों के वर्णन से तथा श्री गुरुदेव के पुण्य विहार की वार्ता से यह स्पष्ट होता है कि वे पाप-प्रवृत्तियों का उन्मूलन करते हुए उज्ज्वल आचार-विचार से भव्य जीवों को नवजीवन प्रदान करते थे। जिस प्रकार सूर्य अपनी रश्मिमाला द्वारा विश्व के अंधकार को दूर करता हुआ उसे आलोक प्रदान करता है, उसी प्रकार आचार्यश्री द्वारा मोहान्धकार का निष्कासन होते हुए वीतराग भावना का प्रकाशन होता था। यही कार्य उन्होंने आगामी विहार तथा चातुर्मासों द्वारा सम्पन्न किया है। एक महाकवि का कथन है, 'महान् आत्माओं का जन्मलोक के अभ्युदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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