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चारित्र चक्रवर्ती
इतिपंच महापुरुषाः प्रणुताः जिनधर्म - वचन - चैत्यानि । चैत्यालयाश्च विमलां दिशन्तु बोधिं बुधजनेष्टाम् ॥
इस प्रकार अर्हत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु परमेष्ठी रूप पंचमहापुरुषों की स्तुति की गई। वे पंचमहापुरुष तथा जिनधर्म, जिनवाणी, जिनबिम्ब व जिनालय, ये बुधजनों को प्रिय निर्मल ऐसी बोधि को प्रदान करें । अभिषेक जिनबिम्ब का होता है, केवली भगवान् का अभिषेक नहीं होता है। दूसरी बात यह भी है कि इस विषय में आगम को देखा जाय, तो ज्ञात होगा कि जिनबिम्ब का जल, घी, दूध, दही तथा रस के द्वारा अभिषेक करना गृहस्थ का कर्त्तव्य कर्म है। बाहुबली भगवान् का श्रवणबेलगोला में जो अभिषेक घी, दूध, दही आदि से होता है, वही आगमोक्त पद्धति है । प्रायः सभी प्रतिष्ठाग्रंथों में पूजा के पूर्व में किये जाने वाले अभिषेक का यही स्वरूप कहा गया है। सांस्कृतिक महत्वपूर्ण केन्द्र
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जयपुर के शास्त्र भंडार में महत्वपूर्ण ग्रंथों का संग्रह है। जैन संस्कृति के लिए उपयोगी विपुल सामग्री जयपुर में इतनी विद्यमान है कि उसका वर्णन स्वयं ही एक ग्रंथ का रूप धारण कर ले। इस नगर में बड़े-बड़े धर्मात्मा पुरुष हुए हैं।
अमरचन्दजी दीवान जैसे धार्मिक पुरुष यहाँ ही हुए, जिन्होंने शेर को माँस नहीं खिलवाया। उस क्षुधित शेर के समक्ष मधुर मिष्ठान्न से भरी थाली रखवा कर कहा था - 'मृगराज, यदि भूख शांत करना है तो यह मधुर भोजन खा लो । यदि मांस की लालसा है, तो मेरे शरीर से उसे पूर्ण करो, मैं दूसरे का मांस खिलवाकर दुर्गति को नहीं जाना चाहता हूँ। मेरा शरीर चाहते हो, तो मैं तैयार हूँ ।'
'इस आत्मवान् तेजस्वी व्यक्ति की वाणी से मृगराज प्रभावित हुआ और उसने थाली से भरी हुई मिठाई को चुपचाप खा लिया।' आत्म- तेज विभूषित आत्माओं प्रभाव से ऐसे कार्य बन जाते हैं, जिनके विषय में तर्कशास्त्र की प्रतिक्रिया हतप्रभ हो जाया करती है।
ऐसी प्रसिद्धि है कि टोडरमलजी की प्रतिभा पर मुग्ध हो इन दीवानसाहब ने उनको आजीविका की चिन्ता से मुक्त करके जैन साहित्य की सेवा में ही संलग्न रहने की सामग्री उपस्थित की थी। इससे थोड़े जीवन में टोडरमल जी महान् कार्य कर गये ।
यहाँ टोडरमलजी ने गोम्मटसार की भाषा टीका विक्रम संवत् १८१८ में पूर्ण की थी, और जयचन्द्रजी ने समयसार की टीका १८६४ में समाप्त की थी। इस प्रकार जयपुर का हिन्दी जैन - साहित्य के निर्माण तथा विकास में बड़ा स्थान है। धार्मिकों का अच्छा समुदाय था ।
मोक्षभिलाषी व्यक्ति का कर्तव्य है कि आगम के अनुसार प्रवृत्ति करे। आगम सर्वज्ञ
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