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________________ प्रभावना २७६ की टीका आदि की रचना इसी जयपुर में हुई है। यहाँ के विशाल समुन्नत, भव्य जिनालय बड़े सुन्दर हैं। मूर्तियाँ भी मनोज्ञ हैं । ६० चैत्यालय तथा ५४ मंदिर हैं । जिस प्रकार की महिमाशाली धर्म की सामग्री जयपुर तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में है ठीक उसके विपरीत दिशा में जनसाधारण की प्रवृत्ति हो रही है। धर्म के प्रति उदासीनता हो गई, यद्यपि वह उदासीनता विषय - सेवन की ओर होनी थी । विषयों से त्याग के स्थान में धर्म तथा भगवान् के दर्शन, पूजा के त्याग की ओर लोगों की प्रवृत्ति हो रही है। आज भी यदि जयपुर जाग जाय, तो जैन- जीवन के लिए महत्व की सामग्री प्रदान कर सकता है, तथा राजस्थान की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान बना सकता है। ऐक्य और धार्मिकता के द्वारा क्या दुर्लभ है ? पहले राज्य के उच्च पदों पर जैन लोगों की नियुक्ति होती थी । यह नगर संवत् १७८४ में अजमेर के नरेश सवाई जयसिंह महाराज ने विद्याधर नामक प्रतिभाशाली जैन दीवान के परामर्श के अनुसार बसाया था। आज यह नगर भारत के सुन्दर नगरों में है यह गुलाबीनगर (pink city) के नाम से विख्यात है, कारण भवनों के निर्माण में लाल पाषाण का उपयोग हुआ है। भवन एक ढंग के हैं। एक-सी सड़कें शोभायमान होती हैं। जयपुर से ही सुन्दर मूर्तियाँ बनकर आज भारत भर में जाती हैं। जयपुर के विद्वानों की हिन्दीभाषी सभी प्रांतों में धाक रही है। उनके बनाए साहित्य का ही अधिक प्रसार रहा है । छपाई के युग में अनेक आर्ष ग्रन्थ मूल तथा अनुवाद सहित छपकर प्रकाश में आए, इससे विवेकी व्यक्तियों का सम्यक् प्रकाश प्राप्त हुआ, अन्यथा मूल-परंपरा से संपर्क छोड़कर अपने अद्भुत तर्क के आधार पर विचित्र पंथों तथा शास्त्रों की जो रचना हुई उसका पता न चलता । एक बार भादों में दशलक्षण पर्व जयपुर में व्यतीत करने का अवसर मिला था । अनन्त चौदस के दिन हम अकस्मात् अभिषेक दर्शनार्थ ऐसे मंदिरजी में चले गए, जहाँ जिन भगवान् पर जल की धारा भी नहीं की जाती थी, वहाँ थाली में ही जल की धारा छोड़ी जाती थी, घंटा बजता था, और मन में यह संकल्प होता था, कि हम भगवान् का ही अभिषेक कर रहे हैं। उस जल को गंधोदक मानकर ग्रहण किया जाता था, जिसका जिनेन्द्रदेव के शरीर में स्पर्श तक नहीं हुआ था। मैंने लोगों से पूछा कि यह क्या बात है, तब बताया गया, कि गुमान - पंथी भाइयों का यह मंदिर है । यहाँ भगवान् का अभिषेक नही करते हैं। इस पंथ के स्थापक पं. टोडरमलजी के छोटे पुत्र गुमानीरामजी थे । इन लोगों का तर्क है, केवली भगवान् का अभिषेक नहीं होता है, अतः अभिषेक करना योग्य नहीं है। संभव है, उस समय संपूर्ण, महत्वपूर्ण ग्रन्थों पर लोगों का ध्यान नहीं गया होगा। शास्त्रों में नवदेवता कहे गए हैं (दशभक्ति, पृ. ३०६ ) : For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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