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________________ २७५ चारित्र चक्रवर्ती करके आत्माकल्याण में प्रवृत्त होंगे। __ संस्था वाले जैसे लोगों से द्रव्य प्राप्त करके संतुष्ट होते हैं, वैसे ही उनको आध्यात्मिक आनन्द की सामग्री जुटाकर भी संतोष मानना चाहिए, तब ही कर्तव्यपरायणता कही जा सकती है। जीर्णोद्धार तथा अन्य तीर्थों का रक्षण भी कमेटी का लक्ष्य रहना चाहिए। महावीर भगवान् के निर्वाणस्थल पावापुरी के संवर्धन की ओर भी महावीरजी क्षेत्रकमेटी का ध्यान रहना चाहिए। संकीर्णदृष्टि का त्याग कर व्यापक दृष्टि को अपनाना श्रेयस्कर होगा। अन्य तीर्थों के विकास का भी ध्यान रहना चीहए। आचार्य महाराज का संघ महावीरजी में लगभग दो माह रहा। हजारों लोगों ने आकर गुरुदेव के उपदेश से अपने जीवन को कृतार्थ किया था। महाराज का उपदेश यही होता था कि तुम सब विभाव का त्याग कर स्वभाव को प्राप्त करो, जिस प्रकार भगवान् महावीर ने किया था। जैनधर्म कहता है कि प्रत्येक आत्मा महावीर भगवान् बन सकता है, कर्मो के आगे भिक्षा मांगने से कुछ कार्य नहीं होता है। संयमी बन स्वावलम्बी जीवन से जीव अपने निर्वाण को प्राप्त करता है। जयपुर चातुर्मास संघ ने यहाँ से ज्येष्ठ माह में जयपुर की ओर विहार किया। असाढ़ की अष्टाह्निका के समय संघ जयपुर पहुंच गया। जयपुर में बहुत अधिक जैन समुदाय है। जयपुर के धार्मिक समुदाय की प्रार्थना पर आचार्यश्री ने उत्तर भारत में सन् १९३२ का पाँचवाँ वर्षायोग व्यतीत करने की स्वीकृति जयपुर के लिए प्रदान कर दी। सेठ वनजी ठोल्या सदृश जौहरी परिवार के व्यक्ति सेठ गोपीचन्दजी, सेठ सुन्दरलालजी आदि रत्न परीक्षकों ने आचार्यश्री के जीवन को चिंतामणि रत्न के रूप में परखा, अतः उनसे अधिक से अधिक लाभ लेने के लिए उनकी आदर्शसेवा, भक्ति, वैयावृत्य की। भादों सुदी दशमी - सुगंध दशमी के दिन सेठ गोपीचन्दजी जौहरी के यहाँ आचार्य महाराज का निरंतराय आहार संपन्न होने की खुशी में उन्होंने ग्यारह हजार का दान कर आचार्य महाराज के नाम से एक औषधालय खोला, ताकि महाराज का पवित्र नाम निरन्तर स्मरण होता रहे। अब न गोपीचन्दजी हैं और न सुन्दरलालजी हैं। वे स्वर्गीय निधि बन गये। बड़े-बड़े विद्वानों का स्थान ___ पहले लोग जयपुर को जैनपुर-सा सोचते थे। ढुंढारी हिन्दी भाषा में ग्रन्थ लिखने वाले बड़े-बड़े विद्वान् जयपुर में हुए हैं। हिन्दी जैन-जगत् में अत्यन्त आदर से बाँचे जाने वाले ग्रंथ सदासुखजी का रत्नकरंड भाषा वचनिका, पं. टोडरमलजी का मोक्षमार्ग प्रकाशक, गोमट्टसार की टीका, पं. जयचन्द्रजी की सर्वार्थसिद्धि वचनिका, समयसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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