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________________ प्रभावना धर्म प्रभावना का अपूर्व स्थान महावीरजी क्षेत्र पर सदा मेला भरा रहता है। अहिंसा - विद्या के प्रचार के लिए यह सुन्दर केन्द्र बन सकता है। जो शक्ति पारस्परिक विद्वेष के कार्यों में क्षीण हुआ करती है, वह यदि अनेकान्त शासन के प्रचार कार्य में सुव्यवस्थित ढंग से लगाई जाय तो बड़ा हित हो सकता है | तीर्थस्थान तो आत्मशुद्धि तथा लोकसेवा के स्थान हैं। इनमें उत्तरदायित्व का आसन लेने वालों को अहंकार को विष के समान मान प्रेम तथा सेवा की मूर्ति बनना चाहिए। देखा यह जाता है, कि कुर्सी पर आदमी बैठा और उसकी दृष्टि में विचित्र परिणमन होता है । किन्तु राज्यासन की वास्तविकता को ध्यान में रखकर 'वीर नेपोलियन कहता है कि लकड़ी के टुकड़े को मखमल से ढाँक दिया, उसे ही सिंहासन कहते हैं। इस प्रकाश में बेचारी कुर्सी की कीमत तो और कम हो जाती है । उत्तरदायित्व के पद को पाकर सेवा के सुयोग से अपने आपको वंचित रखना बड़ी भूल है । साधर्मी भाइयों के प्रति हार्दिक स्नेह रखना सम्यक्त्व का अंग होते हुए तीर्थंकरत्व का भी कारण बताया गया है। प्रायः यह भी देखा जाता है कि लोग व्यक्ति की यथार्थ योग्यता, पात्रता का बहुत कम ध्यान कर कभी तो जातिगत मोहवश, कभी पक्ष की ममता आदि नगण्य निमित्तों से अयोग्यों को श्रेष्ठ सेवा के अधिकार सौंप देते हैं और भविष्य में धर्म तथा संस्कृति की दृष्टि के बारे में जरा भी नहीं विचारते। अपने व्यक्तिगत कार्यों में जैसे रिश्तेदारी, जातीयता आदि का ख्याल न कर योग्यता के आधार पर आदमी को रखकर काम लेते हैं ऐसी विशुद्ध दृष्टि धार्मिक संस्थाओं के संचालकों के चुनाव के बारे में जरूरी है। जिस संस्था में धर्मात्मा सेवाभावी भाई पर जिम्मेदारी रहती है, वहाँ उन्नति होती है, धर्म की वृद्धि होती है, प्रेम-भाव बढ़ता है। धर्म के कार्य में यदि हमने पवित्रता का परिरक्षण न किया, तो भगवान् जाने हमारी क्या गति होगी ? इन विषयों का वस्तुस्थिति से निकट परिचय के आधार पर ही यह प्रकाश डाला गया है। २७४ इस निरंतर उदीयमान क्षेत्र की उच्च व्यवस्था के द्वारा धर्म तथा समाज की बड़ी सुन्दर सेवा हो सकती है। दर्शनार्थ आने वाले भाइयों को धार्मिक तत्त्व बताये जावें तो प्रभु के दर्शन करते हुए यह प्रार्थना की दीनवृत्ति कि मैं तेरे द्वार भीख माँगने आया हूँ, मुझे पुत्र दो, धन दो, स्त्री दो, बदलकर वीतरागता की ओर बढ़ने लगेगी। हजारों व्यक्ति पूजन, स्वाध्याय, संयम आदि के कार्य में लगकर आत्मकल्याण करेंगे। अच्छे चरित्रवान् व्यक्तियों को बुलाकर उनके द्वारा धर्म के उपदेश की व्यवस्था हो, तो लोग भूल को दूर 1. The throne is but, a piece of wood covered with of velvet. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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