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________________ २६१ चारित्रचक्रवर्ती करते समय इनको इस बात का अहंकार तनिक भी नहीं सताता कि मैं कोट्याधीश हूँ। महासभा को विशेष गौरव मुख्यरूप से इन दोनों महानुभावों के कारण मिला। समाज को उन्नत करने तथा जिनधर्म की प्रभावना का कितना बड़ा क्षेत्र पड़ा है। लाखों लोग सराक, जैन कलार आदि के रूप में हैं जो अपनी धर्मक्रियाओं को भूल चुके हैं, उनको धर्म में स्थिर करने का उपाय जरूरी है। मथुरा का चातुर्मास मधुरस्मृति से परिपूर्ण था। सप्तर्षियों ने समाज को सामयिक धर्मोपदेश देकर सुमार्ग पर लगायाथा। इस प्रकार यह चातुर्मास पूर्ण हो गया। विहार अपार जनसमुदाय ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से संघ के विहार के वियोग की व्यथा को सहन किया। जहाँ महाराज का एक दिन को वास हो जाता है, वहाँ के लोग उनके चरणों को छोड़ना नहीं चाहते, तब फिर निरन्तर चार माह पर्यंत उनके चरणों का आश्रय पाने वालों को वियोग की व्यथा होना स्वाभाविक ही है। कोसी और कोसी से खुरजा जब संघ कोसीकलाँ पहुँचा, तब वहाँ बड़ा हार्दिक स्वागत किया गया। वहाँ दि. जैन महासभा का अधिवेशन हुआ। खूब प्रभावना हुई। आचार्यश्री के उपदेशों से बहुत धर्म लाभ हुआ, बहुत लोगों ने व्रत लिए थे। अब संघ प्रस्थान करके समाज में प्रख्यात नगर खुरजा आ गया। वहाँ पहले सेठ पंडित मेवारामजी प्रसिद्ध धर्मात्मा और लोकसेवक तथा अन्य श्रीमान् धीमान् सत्पुरुष हो गये हैं। उस परिवार के सेठ शांतिलालजी रानीवालों के सुन्दर उद्यान में संघ ठहरा। पौष वदी द्वितीया को रथोत्सव भी हुआ। पहले खुरजा में जब रथोत्सव हुआथा, तब अन्य धर्मियों ने उपद्रव किया था। उस समय जैनियों ने तन, मन, धन से रथ निकालने का प्रयत्न किया था। तब बड़े वैभव के साथ रथोत्सव निकला था। खुरजा के रथ की लावनी बनी हुई है। वह ऐसी ही वीररस पूर्ण है जैसे मराठों के पवाड़े होते हैं। यहाँ के मन्दिर विशाल हैं तथा प्रतिमाएँ मनोज्ञ हैं। भारत की राजधानी देहली में प्रवेश __खुरजा के अपने अमृत-उपदेश से उपकृत करते हुए संघ ने प्रस्थान कर सिकन्दराबाद में निवास किया। इसके अनन्तर गाजियाबाद तथा शहादरा होते हुए पौष सुदी दशमी को संघ ने भारत की राजधानी दिल्ली में प्रवेश किया। दिल्ली में जैनियों की संख्या उस समय पंद्रह-बीस हजार के करीब थी। कहते हैं, अब पचास हजार से भी अधिक संख्या हो गई है। वहाँ धार्मिक प्रकृति के लोग बहुत हैं, इसलिए संघ के आने पर दिल्ली समाज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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