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प्रभावना
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नेतृत्व में समाजहितार्थ दिगबर जैन महासभा का जन्म मथुरा में हुआ था, जिसकी स्वर्णजयंती सन् १९५१ में वैभव के साथ इन्दौर में रावराजा सर सेठहुकुमचन्दजी के समक्ष मनाई गयी थी तथा जिसका उद्घाटन मध्यभारत के राजप्रमुख श्रीमंत महाराज जयासीराव शिन्दे, ग्वालियर ने किया था।
इस महासभा में पहले सभी दिगम्बर जैन सम्मिलित हुआ करते थे। पहले इस महासभा का समाज में इतना अधिक गौरव था कि इसके उत्सव में लोग बड़ी भक्ति और श्रद्धा से भाग लेते थे। एक-एक वार्षिक उत्सव पंचकल्याणक का आनन्द प्रदान करता था।
महासभा की स्वर्णजयंती के समय पर मैंने आचार्य शान्तिसागर महाराज से महासभा के विषय में उनके विचार पूछे, तब महाराज ने कहा था, 'दि. जैनधर्म संरक्षिणी महासभा को हमारा आशीर्वाद है, क्योंकि वह धर्मसंकट में नहीं डिगी है। आगे भी यह धर्म से नहीं डिगेगी ऐसी हमें आशा है।'
इस महासभा ने आगम के ज्ञाताओं को उत्पन्न करने के उद्देश्य से एक महाविद्यालय मथुरा में स्थापित किया था। योग्य व्यवस्था न होने से वह लगभग बन्द हो गया है। इस संस्था के द्वारा जो समाज की सेवा हुई उसका विशेष श्रेय रावराजा सर सेठ हुकुचन्दजी के महान् प्रभाव तथा हार्दिक सहयोग को था। रावराजा सर सेठ हुकुमचंदजी और उनका ब्रह्मचर्य प्रेम
उनके विषय में आचार्य महाराज ने ये शब्द कहे थे, “हमारी अस्सी वर्ष की उमर हो गई, हिन्दुस्थान के जैनसमाज में हुकुमचन्द सरीखा वजनदार आदमी देखने में नहीं आया। राज-रजवाड़ों में हुकुमचंद सेठ के वचनों की मान्यता रही है। उसके निमित्त से जैनों का संकट बहुत बार टला है। उनको हमारा आशीर्वाद है, वैसे तो जिन भगवान् की आज्ञा से चलने वाले सभी जीवों को हमारा आशीर्वाद है।'
हुकुमचन्दजी के विषय में एक समय आचार्य महाराज ने कहा था, “एक बार संघपति गेंदनमल और दाडिमचन्द ने हमारे पास से जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत लिया, तब हुकुमचन्द सेठ ने इसकी बहुत प्रशंसा की। उस समय हमने हुकुमचन्द सेठ से कहा 'तुमको भी ब्रह्मचर्य व्रत लेना चाहिये।' हुकुमचन्द ने तुरन्त ब्रह्मचर्य व्रत लिया और कहा था, महाराज ! आगामी भव में भी ब्रह्मचर्य व्रत मिले। लौकान्तिक का पद पाकर पुनः मनुष्य भव में भी ब्रह्मचर्य का पालन करूँ।' हुकुमचन्द का ब्रह्मचर्यव्रत पर इतना प्रेम है।" दिगम्बर जैन महासभा को अपनी महत्वपूर्ण सेवाओं द्वारा अलंकृत करने वाले
और तन, मन, धन से काम करने वाले धर्मवीर सरसेठ भागचन्द्रजी सोनी अजमेर वाले हैं, जिनकी वंशपरम्परा से वीतराग धर्म की श्रद्धापूर्वक सेवा का उज्ज्वल कार्य होता आया है। जिनधर्म की सेवा तथा आचार्य शांतिसागर महाराज सदृश गुरु की भक्ति
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