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________________ २५६ चारित्र चक्रवर्ती मनन योग्य है : दुःखेस्वतुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः । वीत-राग-भय-क्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ अर्थ : दुःखों में उद्वेगरहित, सुखों में इच्छारहित, वीतराग, वीतभय तथा वीतक्रोध मुनि स्थितप्रज्ञ कहा गया है। एक बार एक प्रख्यात ब्राह्मण एडवोकेट हमसे कहते थे हमारे घर के पास जैन मंदिर था। बचपन में हमने सुन रखा था, हस्तिना पीड्यमानोपि न गच्छेत् जैनमन्दिरम्।' इससे हम जैन मन्दिर कभी नहीं गये। एक बार जैन मूर्ति का दर्शन अकस्मात् हो गया। देखते ही भ्रम दूर हुआ। मन में बड़ा प्रेम पैदा हो गया।' उक्त द्वेषमूलक किंवदन्ती का मूल यह प्रतीत होता है, कि जब समर्थ जैनश्रमणों और लोकसेवकों के प्रभाव से सर्वत्र जैनधर्म की वैजयंती फहराने लगी, तब ग्रामीण भाइयों को उस प्रभाव से बचाने के लिए इस कहावत का जाल रचा गया, ताकि लोग जैनमन्दिर में जाने से डरें। डरा देने से बालक के समान जनता की स्थिति हो जाती है। आज भी जहाँ कहीं भ्रमभाव विद्यमान है उसका कारण प्रत्यक्ष-परिचय (direct knowledge) का अभाव है। शिवपिंडी की पूजा करने वालों का दिगम्बरत्व के प्रति विरोध विचित्र बात है। जैन दिगम्बर मुनि तथा मूर्ति में काम-क्रोध, तथा लोभ भाव का अभाव प्रत्यक्ष गोचर होता है। गीता (१६, २०)में काम, क्रोध तथा लोभ को नरक का द्वार इन शब्दों में कहा है : त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् जय जयेत् ॥ काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं, इससे इन तीनों का त्याग करना चाहिए। इनका त्यागी दैवीसम्पत्तिसम्पन्न हो मोक्ष पाता है, कारण दैवीसंपत्ति को मोक्ष का कारण कहा है : - दैवी संपत विमोक्षाय ॥ गीता १६,५ ॥ आचार्य शांतिसागर महाराज की तपश्चर्या के प्रभाव से निर्विघ्न रथोत्सव निकला और विघ्नप्रिय लोगों ने अपने मन को बदल कर प्रेम से जिनमुद्रा के दर्शन द्वारा नेत्रों को सफल किया। जैनमहासभा की जन्मभूमि __इस युग के जैनसमाज के प्रमुख नेता राजा लक्ष्मणदास सी. आई. ई. मथुरावालों का नाम भारत भर में गौरव के साथ लिया जाता रहा है। इनके ही पूर्वजों ने चौरासी का विशाल जिनमंदिर बनवाया था, जो एक जबरदस्त किले के समान दिखता है। इनके ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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