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________________ प्रभावना के रोम-रोम में आनंद व्यक्त होता था। राजधानी के योग्य गौरवपूर्ण जुलूस द्वारा आचार्य शांतिसागर महाराज के प्रति भक्ति व्यक्त की गई। बड़े-बड़े प्रतिष्ठित तथा विचारशील नागरिक तथा उच्च अधिकारी लोग आचार्यश्री के दर्शनार्थ आते थे, अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न करते थे तथा समाधान प्राप्त कर हर्षित होते थे । २६२ एक अंग्रेज का शंका समाधान एक दिन एक विचारवान् भद्र स्वभाव बाला अंग्रेज आया। उसने पूछा था, “महाराज ! आपने संसार क्यों छोड़ा, क्या संसार में रहकर आप शांति प्राप्त नहीं कर सकते थे ?" महाराज ने समझाया, "परिग्रह के द्वारा मन में चंचलता, राग, द्वेष आदि विकार होते हैं। पवन के बहते रहने से दीपशिखा कंपनरहित नहीं हो सकती है। पवन के आघात से समुद्र में लहरों की परम्परा उठती जाती है। पवन के शान्त होते ही दीपक की लौ स्थिर हो जाती है, समुद्र प्रशान्त हो जाता है, इसी प्रकार राग-द्वेष के कारण रूप, धन, वैभव, कुटुम्ब आदि को छोड़ देने पर मन में चंचलता नहीं रहती है। मन के शान्त रहने पर आत्मा भी शान्त हो जाती है। निर्मल जीवन द्वारा मानसिक शान्ति (mental peace) आती है। विषय भोग की आसक्ति के द्वारा इस जीव की मनोवृत्ति मलिन होती है। मलिन मन पाप का संचय करता हुआ दुर्गति में जाता है। परिग्रह को रखते हुए पूर्णतया अहिंसा - धर्म का पालन नहीं हो सकता है, अतएव आत्मा की साधना निर्विघ्न रूप से करने के लिए विषयभोगों का त्याग आवश्यक है। विषय भोगों से शान्ति भी तो नहीं होती है। आज तक इतना खाया, पिया, सुख भोगा, फिर भी क्या तृष्णा शान्त हुई ? विषयों की लालसा का रोग कम हुआ ? वह तो बढ़ता ही जाता है। इससे भोग के बदले त्याग का मार्ग अंगीकार करना कल्याणकारी है । संसार का जाल ऐसा है कि उसमें जाने वाला मोहवश कैदी बन जाता है। वह फिर आत्मा का चितवन नहीं कर पाता है। दूसरी बात यह भी है कि जब जीव मरता है, तब सब पदार्थ यहीं रह जाते हैं, साथ में अपने कर्म के सिवाय कोई भी चीज नहीं जाती है, इससे बाह्य पदार्थों में मग्न रहना, उनसे मोह करना अविचारित कार्य है । " इस विषय में आचार्य की मार्मिक, अनुभवपूर्ण बातें सुनकर हर्षित हो वह अंग्रेज नतमस्तक हो गया। बड़े-बड़े जज, बैरिस्टर, प्रोफेसर आदि भी आते थे । एक दिन एक डिस्ट्रिक्ट जज महोदय आये। उन्होंने मुनि चंद्रसागर महाराज से बहुत देर तक सूक्ष्म चर्चा की। अपने सन्देहों का निवारण कर तथा गुरुदेव को प्रणाम कर वे चले गये । ज्ञान तथा चारित्र सम्पन्न संघ के कारण अपूर्व प्रभावना हो रही थी । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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