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________________ २५३ वैयावृत्य धर्म और आचार्य श्री आगरा में संघ को एक ही बात से आकुलता उत्पन्न हो गई थी, कि मुनि पायसागरजी गोकाकवालों की प्रकृति बिगड़ गई थी और उनका शरीर क्षीण होने लगा था । अतः आचार्य महाराज ने एक ब्रह्मचारी तथा मुनि नमिसागरजी को उनकी परिचर्या के हेतु आगरा में छोड़ा था। मुनि के बीमार होने पर वैयावृत्य की बात तो सबको महत्व की दिखेगी, किन्तु श्रावक की भी प्रकृति बिगड़ने पर आचार्यश्री का ध्यान प्रवचन- वत्सलता विशेष रूप से जाता था। आचार्यश्री श्रेष्ठ पुरुष होते हुए भी अपने को साधुओं में सबसे छोटा मानते थे । चारित्र चक्रवर्ती एक बार कवलाना में १६४६ में ब्रह्मचारी फतेचन्दजी परवार भूषण नागपुरवाले बहुत हो गये थे। उस समय आचार्य महाराज उनके पास आकर बोले, "ब्रह्मचारी ! घबड़ाना मत, अगर यहाँ के श्रावक लोग तुम्हारी वैयावृत्य में प्रमाद करेंगे, तो हम तुम्हारी सम्हाल करेंगे।” जब ब्रह्मचारीजी से कवलाना में भेंट हुई, तब उन्होंने आचार्यश्री की सान्त्वना और वात्सल्य की बात कही थी। उससे ज्ञात हुआ कि महाराज वात्सल्य गुण भी भंडार थे। उनके हृदय में अगणित विशेषताएं छिपी हुई थीं। पूज्य नमिसागरजी वहाँ मुनि नमिसागर महाराज को पायसागरजी की परिचर्या के लिए छोड़कर आचार्य महाराज पूर्णतया निश्चिन्त हो गये, कारण वैयावृत्य करने वाले को जितना दृढ़ प्रकृति का होना चाहिये, यह बात मिसागरजी में खूब थी। एक बार अजमेर में नमिसागर महाराज के दर्शन हुए। वहाँ हम सर सेठ भागचंदजी सोनी के यहाँ विधान महोत्सव में गये थे। एक बार आचार्यश्री ने कहा था, "नमिसागर बड़ी कड़ी प्रकृति का है । " कड़ी प्रकृति का उदाहरण इससे अच्छा और क्या होगा कि आँखों की पीड़ा होने पर लाल मिर्च के पीसे हुए बीजों को उनकी आँखों में आंजा जाता था और दाह होते समय जरा भी नहीं घबड़ाते थे। मैंने नमिसागर महाराज से पूछा था, "आप यह क्या गजब करते हैं, इसमें क्या कष्ट नहीं होता ?" महाराज ने कहा था, "थोड़ी देर बाद नेत्रों में बहुत शीतलता आ जाती है।" उनकी उग्र तपस्या की उत्तर भारत के लोगों में पर्याप्त प्रसिद्धि भी रही है। उनकी समाधि सन् १६५६ में ईसरी में हुई थी । योग्य परिचर्या आदि होते हुए भी जब पायसागरजी की प्रकृति नहीं सुधरी, तब भाऊ साहब लाटकर आदि दक्षिण के कुछ भाई आगरा आये और उनको अपने साथ कोल्हापुर आगरा से विहार करता हुआ आचार्य संघ चैत्रवदी ६ को फिरोजाबाद के मेले में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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