SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रभावना २५२ वह सौन्दर्य का भंडार दिखता है, वीतरागी के लिए वहाँ सौन्दर्य का एक कण भी नहीं है। 'रागी और विरागी के विचार में बड़ो भेद' - यह कथन सत्य है। अकिंचन मुनियों को पौद्गलिक होते हुए भी नन्दीश्वर द्वीप के अकृत्रिम जिन बिम्बों की परोक्ष वन्दना करने से जो आनन्द प्राप्त होता है, वह दूसरी वस्तुओं में नहीं आता। द्यानतराय जी ने लिखा है - कोटि शशि भानु दुति तेज छिप जात है। महा वैराग परिणाम ठहरात है। बयन नहिं कहै लखि होत सम्यक् धरम् । भवन बावन्न प्रतिमा नमो सुखकरम् ॥६॥ नंदीश्वर भक्ति में उन जिनेन्द्र बिम्बों को अप्रतिम-अतुलनीय कहा है। ऐसी आत्मसौंदर्य को विकसित करने वाली तथा अनन्त सुख की जननी सामग्री की ओर ही मुनियों का मन जाता है और अनन्त दुःखों को उत्पन्न करने में कारणभूत रागाग्नि को प्रदीप्त करने वाली वस्तुओं में उनका मन विश्रान्ति नहीं पाता है। कदाचित् ऐसी वस्तु का सान्निध्य हो जाय तो वे वैराग्य के प्रकाश में वस्तु के स्वरूप को विचारते हुए अपनी निर्मलता को अक्षुण्ण रखते हैं, जैसे विष की भस्म बनाकर योग्य अनुपात से सेवन करने पर वह विकार नहीं करता है। इसी प्रकार वीतरागता की दृष्टि से देखे गये पदार्थ विकृति नहीं पैदा करते हैं। श्रेयस्कर मार्ग यही है कि अपनी निर्मलता वर्धक वस्तुओं का ही आश्रय लिया जाय। इस कारण आगरा पहुंच कर विश्वविख्यात सौन्दर्य तथा कलामय स्थलों को न देखने वाले ये आत्मदर्शी महापुरुष क्या स्वयं आश्चर्य के आगार नहीं हैं ? यहाँ बड़े-बड़े जैन विद्वान् हो चुके हैं । यह संघ आगरा में पीर कल्याणी की नशिया में ठहरा था। आहार के लिए बेलनगंज आदि मुख्य-मुख्य भागों में मुनिराज जाते थे। संघ द्वारा आगमोक्त विषयों पर उपदेश हुआ करता था। इस आगरा का प्राचीनकाल में बड़े-बड़े जैन कवियों से बड़ा सम्बन्ध रहा है। पंच मंगल पाठ बनाने वाले कवि रूपचंदजी, उच्च कवि भूधरदासजी आदि यहाँ के ही निवासी रहे हैं। पं. गोपालदास जी के गुरु पं. बल्देवदासजी भी आगरा में रहा करते थे। हिन्दी जगत् के उज्ज्वल आध्यात्मिक कवि बनारसीदासजी, भैया भगवतीदासजी आदि का आगरा से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। आगरा के भव्यजीवों को धर्मामृत के द्वारा परितृप्त करते हुए संघ ने जैनधर्म की खूब प्रभावना की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy