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चारित्र चक्रवर्ती वे बढ़ते-बढ़ते बड़े से बड़े त्यागी हो गये। एक मुनिराज सुनाते थे कि हम पहले आचार्य महाराज का कमंडलु, हाथ में लेकर साथ में ही चलते थे, फिर उनके सत्संग से थोड़ाथोड़ा संयम पालने लगे, और अब हमारे हाथ में ही वह कमण्डलु आ गया। . आचार्य महाराज को सार रूप वस्तु रत्नत्रय दिखती थी। उसके सिवाय पुद्गल का वैभव पूर्णतया सार-रहित दिखता था। पुद्गल का वह रूप उनके मन को जॅचता था, जो वीतरागता की विमल ज्योति को जगाता है। इसी से वे तीर्थकरों आदि की चरण रज से पवित्र पर्वतों की वंदना के हेतु हजारों मील पैदल यात्रा को निकले थे, किन्तु रागरंजित पुद्गल का वैभव उनके मन को नहीं खेंचता था। इसीलिए उन्होंने कलापूर्ण आगरा के २२ जिन मंदिरों का ध्यान से दर्शन किया, किन्तु जगत् में विख्यात ताजमहल देखने की इच्छा भी न की। शाहजहाँ के किले को देखने की तनिक भी आकांक्षा न की। वहाँ की
और भी कलामय कृतियों की ओर उनका मन नहीं गया। आध्यात्मिक दृष्टि
इसका क्या कारण है ? क्या वे ललित कलाओं से द्वेष करते थे? इसका कारण यह था कि आत्म सौन्दर्य का दर्शन करने से पुद्गल का वैभव उन्हें सारशून्य दिखता था, क्षणिक प्रतीत होता था तथा राग द्वेष के विकारों का संवर्धक होने के कारण आत्म सौन्दर्य का संहारक दिखताथा। जिस इंद्रधनुष को जगत् देख हर्षित होता है, कविगण विविध कल्पनाओं द्वारा जिसे अद्भुत सौन्दर्य का पुंज मानते हैं, वहीं इंद्रधनुष वैज्ञानिक की दृष्टि में साधारण वस्तु बन जाता है, कारण वह उसके अंतस्तत्त्व को जान चुका है कि वह इन्द्र का धनुष नहीं है। जल कणों के भीतर से सूर्य किरणें निकलने से यह वर्ण परिवर्तन होता है, इसी प्रकार आत्मविज्ञान वाले महामुनियों को बाह्य रागवर्द्धक सामग्री आकर्षण तथा आराधना की वस्तु नहीं दिखती थी, उन्हें वीतरागता पूर्ण साधन सामग्री प्रिय लगती थी।
शाहजहाँ की कामिनी की स्मृति में खड़ा किया गया ताजमहल उनके मन में दर्शनेच्छा को नहीं जगाता था। हाँ, श्रवणवेलगोला में बाहुबली भगवान् के चरण अवश्य उनके चित्त को खेंचते थे।
विश्व पर्यटक और विख्यात लेखक, स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू : जुलाई, सन् १९५१ को बाहुबली स्वामी के दर्शनार्थ पंहुचे थे। सुपुत्री इन्दिरा गांधी साथ थी। उन्होंने मठ की पर्यटक पुस्तक में लिखा था, “मैं आज यहाँ आया और इस आश्चर्यजनक मूर्ति को देखा और प्रसन्न हुआ।" बाहुबली के चरणों में जाने से वीतरागता के भाव जगते हैं, मोहज्वर मन्द होता है, आत्मकल्याण का भाव उनके चरणों की आराधना से जगता है। ये बातें आगरा के मकबरे में कहाँ हैं ? वहाँ शाहजहाँ की अपनी रमणी के प्रति अत्यन्त उत्कृष्ट आसक्ति का चित्र समक्ष आता है। रागी पुरुषों के लिए
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