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________________ प्रभावना २५४ पंहुचा था। यहाँ जैन समाज अच्छी संख्या में है। पंडित गोपालदासजी वरैया के समान जैनधर्म के प्रभावक विद्वान् पं. पन्नालाल जी न्यायदिवाकर फिरोजाबाद निवासी ही थे । वे न्यायशास्त्र के अद्वितीय पंडित थे, शास्त्रार्थ करने की कला में पूर्ण निपुण थे। उस समय भारतवर्ष के जैनियों में उनका आदर था । अन्य धर्मी विद्वान् भी उनके नाम से घबड़ाते थे । यहाँ सात जिनमन्दिर हैं । यहाँ भगवान् चन्द्रप्रभु स्वामी की एक फुट ऊंची स्फटिक की मनोज्ञ एवं सातिशय प्रतिमा है। उसका दर्शन करते ही समंतभद्र स्वामी रचित स्वयंभू स्तोत्र का यह पद्य स्मरण में आये बिना नहीं रहेगा: चंद्रप्रभुं चंद्रमरीचिगौरं चंद्रं द्वितीय जगतीव कान्तम् । वंदेऽभिवंद्यं महतामृषीन्द्रं जिनं जितस्वान्त कषायबंधम् ॥ अर्थ : चन्द्रमा की किरणों के समान गौरवपूर्ण, जगत् में अत्यन्त रमणीय दूसरे चन्द्रमा के सदृश, हृदय में विद्यमान कषाय के बंधन को जीतने वाले, महान् पुरुषों के द्वारा अभिवंदनीय, मुनीन्द्र जिन भगवान् चन्द्रनाथ स्वामी को मैं प्रणाम करता हूँ । यह वही पद्य है, जिसे समन्तभद्र स्वामी ने पढ़ा था और शिवपिंडी में चंदप्रभु भगवान् की मूर्ति प्रगट हुई थी । प्रश्न व उसका मार्मिक समाधान एक समय दक्षिण में आचार्यश्री के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि समंतभद्र स्वामी के प्रणाम करते समय भगवान् चंद्रप्रभु की ही मूर्ति क्यों प्रगट हुई, जबकि स्वयंभूस्तोत्र में तो चौबीसों भगवान् का स्तवन है ? इस प्रश्न का उत्तर समान्यतया अन्य विद्वान् यही देंगे कि यदि शीतलनाथ भगवान् की मूर्ति होती, तो भी शंका उस विषय में उपस्थित की जाती ? अतः उक्त प्रश्न का कोई महत्व नहीं है, किन्तु आचार्य महाराज ने ऐसा समाधान नहीं किया था। उन्होंने अपने उत्तर के साथ सुन्दर युक्तिवाद दिया था। महाराज ने कहा- "चौबीस तीर्थंकरों के विशेष भक्त चौबीस यक्ष-यक्षी कहे गये हैं । भगवान् चंद्रप्रभु की यक्षी ज्वालामालिनी है । ज्वालामालिनी यक्षी ने अपने विशेष आराध्यदेव चंद्रनाथ स्वामी की मूर्ति प्रगट करके जगत् में उनके नाम का जयकार कराकर आनन्द का अनुभव किया। उस स्तोत्र में बीजाक्षर 'वन्दे' हैं । जिस क्षण वन्दे शब्द स्वामी समंतभद्र के मुख से निकला, उसी समय चंद्रप्रभु भगवान् की अपूर्व प्रतिमा प्रगट हुई थी ।" आचार्यश्री के समाधान से उपस्थित उद्भट विद्वान् उनके विशिष्ट अनुभव और क्षयोपशम से प्रभावित हो गये थे । वहाँ से चलकर संघ एटा आया। बाद में जलेसर पहुंचा, पश्चात् हाथरस में धर्म प्रभावना तथा लोककल्याण करता हुआ संघ अलीगढ़ पहुंचा। अलीगढ़ में संघ का भव्य स्वागत हुआ। खूब धर्म प्रभावना हुई। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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