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________________ प्रभावना का मनोबल सफल न हो पाया। प्रकृति ने धर्म-रक्षा में योग दिया था। पुलिस के बड़े अधिकारी मुनि महाराजों के पास आये। उनके दर्शन कर उनके मन में उपद्रवकारियों के प्रति भयंकर क्रोध जागृत हुआ। वे सोचने लगे, ऐसे महात्मा पर जुल्म करने की उन नरपिशाचों ने चेष्टा कर बड़ा पाप किया। उनको कड़ी से कड़ी सजा देंगे । साम्य भाव अर्थात् विश्वबंधुत्व (पाप से घृणा, पापी से नहीं) २४८ प्रभात का समय आया । आचार्य महाराज ने यह प्रतिज्ञा की थी, कि जब तक तुम छिद्दी ब्राह्मण को हिरासत से नहीं छोड़ोगे, तब तक हम आहार न लेंगे। पुलिस अधिकारियों ने कहा- "महाराज ! बदमाशों के प्रति दया की बात आप क्यों कहते हैं ?" महाराज, "हमारा उनके प्रति जरा भी विद्वेष नहीं है। हमारे निमित्त से वे कष्ट पाएँ यह देखते हुए हम कैसे आहार करें ?" साधु श्रेष्ठ का आग्रह देखकर उस समय उनको छोड़ दिया, शायद यह सोचकर कि पीछे न्याय के अनुसार इन पर कार्यवाही की जायगी। अभी तो इन तपस्वियों का आहार हो जाने दो। उस समय लोग उन पापी लोगों को धिक्कार देते थे, उनका अन्तःकरण भी स्वयं उनको धिक्कार देता था । सच्ची अहिंसा की प्रतिष्ठा तो ऐसे ही मुनियों में होती है। प्राण घातक के लिए भी भाई की भावना आज की दुनियाँ में कौन रख सकता है। आचार्य महाराज को कर्मों के सिवाय और कोई भी शत्रु नहीं दिखता था । ये विश्वप्रेमी महात्मा हैं। गांधीजी के शब्द आचार्य शांतिसागर महाराज के विषय में कितने उपयुक्त दिखते हैं कि “बंन्धुत्व से यह मतलब नहीं है कि जो तुम्हारा बन्धु बने और तुमसे प्रेम करे, उसके तुम बन्धु बनो और उससे तुम प्रेम करो । यह तो सौदा हुआ । बन्धुत्व में व्यापार नहीं होता और मेरा धर्म तो मुझे यह सिखाता है कि बन्धुत्व केवल मनुष्यमात्र से ही नहीं, बल्कि प्राणी मात्र के साथ होना चाहिए। हम अपने दुश्मन से भी प्रेम करने के लिए तैयार न होंगे, तो हमारा बन्धुत्व निरा ढोंग है । दूसरे शब्दों में कहूं, तो जिसने बन्धुत्व की भावना को हृदयस्थ कर लिया है वह यह नहीं कहने देगा कि उसका कोई शत्रु है ।” आचार्यश्री के व्यवहार को देखकर कौन कहेगा कि इनकी दृटि में भी कोई शत्रु नाम की प्राणधारी मूर्ति है ? अपने अनन्त प्रेम से ये समस्त विश्व को मंगलमय बनाते हैं। मैंने सन् १९४६ में कवलाना में महाराज से दैव और पुरुषार्थ पर चर्चा छेड़ी थी । उस प्रसंग में धौलपर की घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा था- "धौलपुर के राजाखेड़ा ग्राम में छिद्दी ब्राह्मण पाँच सौ आदमी लेकर हमारे प्राण लेने आया था। उसके आने से एक घण्टा पहले हम बाहर के बदले भीतर सामायिक करने बैठ गये थे। बाद में मूसलधार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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