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________________ प्रभावना २४४ रहने के स्थान पर शासन देवताओं की कलामय मूर्तियां दर्शनीय हैं। जैन संस्कृति का महान् केन्द्र ग्वालियर की धार्मिक समाज ने संघ के आने पर खूब धर्म प्रभावना की थी। जहाँजहाँ आचार्य महाराज का संघ पहुंचा, वहाँ-वहाँ के लोग यही कहते हुए पाये गये कि ऐसा आनन्द, ऐसी प्रभावना कभी नहीं हुई। अजैन जनता भी जैन ऋषियों के श्रेष्ठ चरित्र से प्रभावित होती हुई जैन संस्कृति के प्रति आदर भाव व्यक्त करती थी। अपूर्व जागृति तथा आध्यात्मिक प्रभावना हुई। यज्ञोपवीत धारण करना जैन संस्कृति का अंग न होकर ब्राह्मण संस्कृति का चिह्न है, ऐसी कुछ लोगों की शंकाएं थी। उनका आगम के प्रकाश में निराकरण किया गया था। ब्राह्मणों में पाई जाने वाली सभी बातों के निषेध रूप में जो जैन संस्कृति का स्वरूप समझते हैं, वे दोनों संस्कृतियों के प्रति न्याय नहीं करते हैं। चक्रवर्ती भरत ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की थी। जैन दृष्टि में वह यज्ञोपवीत रत्नत्रय धर्म का प्रतीक है, इसलिए तत्त्वज्ञ उसका आदर करता है। आचार्यश्री के युक्ति तथा अनुभवपूर्ण उपदेश से लोगों ने यज्ञोपवीत को जैन शास्त्र की आज्ञा जान अंगीकार किया। ग्वालियर राज्य में प्राचीन जैन वैभव की विपुल सामग्री की दुर्दशा देख कर किस धार्मिक के हृदय में वेदना उत्पन्न न होगी, कि समाज के प्रमाद से उन महत्वपूर्ण स्थलों की उचित व्यवस्था अब तक भी न हो सकी। मुरैना यहाँ से चलकर संघ माघ वदी दूज को प्रसिद्ध विद्वान् तथा जैन धर्म प्रभावक पं. गोपालदास जी बरैया की निवास भूमि मुरैना पहुंचा, जहाँ उनके द्वारा स्थापित जैनसिद्धांत विद्यालय विद्यमान है। पहले इस विद्यालय की जैन समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी। यह जैन समाज में धर्म विद्या के शिक्षण के लिये आक्सफोर्ड अथवा केम्ब्रिज के विद्या मंदिर सदृश माना जाता था। स्व. बरैयाजी प्रतिभाशाली विद्वान् थे। उनके प्रबल तर्क के समक्ष प्रमुख आर्यसमाजी विद्वान् दर्शनानन्द को शास्त्रार्थ में पराजित होना पड़ा था। कलकत्ते के प्रकाण्ड वैदिक विद्वानों ने उनके तर्कपूर्ण भाषण की बहुत प्रशंसा की थी, तथा न्यायवाचस्पति पदवी दी थी। वे त्यागी तथा निस्पृह आदर्श चरित्र विद्वान् थे। वे बिना पारिश्रमिक लिये धर्म के ममत्ववश शिक्षा देते थे। वे धन तथा धनिकों के दास नहीं थे। उनका जीवन बड़ा प्रामाणिक था । समाज के श्रेष्ठ विद्वानों में उनकी गणना होती थी। उनकी कीर्ति से आकर्षित होकर निल्लीकार (दक्षिण) से एक निर्ग्रन्थ मुनिराज १०८ अनंतकीर्ति महाराज ज्ञान-लाभ हेतु सन् १९१६ के लगभग मुरैना पधारे थे, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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