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________________ २४५ चारित्र चक्रवर्ती दुर्दैव-वश उनकी कामना पूर्ण न हो पाई और शीघ्र ही उनका वहाँ स्वर्गवास हो गया। अनंतकीर्ति मुनिराज की समाधि ___ वह घटना भी बड़ी विचित्र थी। मुरैना की मिट्टी में रेत का अंश होने से वह गर्मी में भीषण उष्ण हो जाती है। और ठंड में अत्यन्त शीतल होती है। उस जमाने में दिगम्बर मुनिराज का उत्तर भारत में कभी किसी को दर्शन नहीं हुआ था, अतः एक भक्त भाई ने सोचा सर्दी की भीषणता से जब हमें असह्य पीड़ा होती है, तब इन दिगम्बर गुरु महाराज को बहुत कष्ट होगा, इससे उसने जिस कमरे में महाराज का निवास था, वहाँ एक सिगड़ी जलते हुए कोयलों से भरकर रख दी और कमरा बन्द कर दिया। उसने मन में सोचा, इसमें जो दोष होगा वह मुझे लग जायगा। रात्रि का समय है। महाराज ध्यान में हैं, कुछ बोलेंगे नहीं। कल कुछ कहेंगे तो देखा जायगा। मिरगी रोग किसी को पता न था, कि मुनिराज को पुराना मृगी का रोग था, अग्नि का संपर्क पाकर अपस्मार का वेग हो गया। उससे मूर्छित होकर वे गिर गये और उनका पैर सिगड़ी की अग्नि के भीतर पड़ गया। पैर से जो रक्त की धारा बही, उसने उस अग्नि को बुझाया। होश में आने के बाद मुनिराज ने सच्चे महावीरों के समान दृढ़ मनोवृत्ति का परिचय दिया तथा शांत भाव से द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन पूर्वक उस असह्य वेदना को सहन किया। कोई हल्ला नहीं किया, चुपचाप मौन ही रहे आये। प्रभात हुआ। दर्शनार्थी आये। भीषण दृश्य देखकर घबड़ा गये। अब समाज बड़ा दुःखी हुआ, लेकिन एक का दुःख दूसरा कहीं बांट सकता है ? संयम अविरोधी उपचार किये गये, किन्तु वे फलप्रद न हुए। प्रायः मुनि जीवन में संयमी रहने से रोग आता नहीं है, और यदि कोई बीमारी असाता के उदयवश आई तो शरीर को समाप्त होने से विलम्ब नहीं लगता है। - श्री अनंतकीर्ति महाराज के शरीर में धनुर्वात रोग ने आक्रमण किया। लोग किंकर्तव्यविमूढ़ थे। बड़े-बड़े विद्वान् थे, किन्तु कर्मों के प्रचण्ड प्रहार के आगे पंडिताई क्या करेगी ? उस रोग के कारण वे महाराज मूर्छित हो जाते थे। सारा पैर जला है। उसकी वेदना शांत भाव से सहन करते थे। अब नया भीषण रोग आ गया। उस अवस्था में उनके मुख में कोई शब्द निकलते थे, तो 'अरिहंता सीमंधरा'। उस समय वे दुःखी श्रावकों को उल्टा साहस देते हुए कहते थे, ‘तुम क्यों घबड़ाते हो, शरीर नहीं चलता, उसे छोड़ देना, रत्नत्रय धर्म नहीं छोड़ना' यह कहकर पुनः अरिहंता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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