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________________ २३७ चारित्र चक्रवर्ती में जैन मुनिराज की तपश्चर्या की बड़ी प्रसिद्धि हो रही थी। आचार्य महाराज की अपने व्रतों के पालन में तत्परता देखकर कोई नहीं सोच सकता, कि इन योगिराज ने इतना भयंकर तप किया है। दूर-दूर के लोगों ने आकर घोर तपस्वी मुनिराज का दर्शन किया। धीरे-धीरे वे तपः पुनीत पुण्य दिवस पूर्ण हो गये। अब चातुर्मास समाप्त होने को है । ललितपुर की धार्मिक समाज ने कार्तिक सुदी नवमी से पूर्णिमा पर्यन्त रथोत्सव कराया। हजारों की संख्या में लोग आये । पूर्णिमा को रथ क्षेत्रपाल से बस्ती की ओर निकाला गया। उस समय आचार्यश्री का शरीर बहुत कमजोर था, किन्तु आत्मा के बल से वे भी जुलूस में सम्मिलित हो गये और उन्होंने शहर के मन्दिरों की वन्दना की, पश्चात् क्षेत्रपाल आये । यथार्थ में महाराज में असाधारण शक्ति थी । सन् १९५० की बात है । गजपंथा में व्रतों में महाराज का धारणा पारणा रूप व्रत चल रहा था। अन्न छोड़े हुए लगभग दो वर्ष हो चुके थे । तेरस तथा अनंत चौदस को उनका उपोषण था। महाराज ने कहा- "आज हम गजपंथा पर्वत की वंदना को जायेंगे ।" उस अवसर पर मैंने महाराज के पैरों को कुछ क्षण दाबने का प्रयत्न किया, ताकि उनको पर्वत पर चढ़ने का कष्ट न हो, तब महाराज बोले - “पंडित जी ! अभी हमारी भावना तो एक बार पुनः शिखरजी की वंदना करने की होती है। क्या करें, नेत्रों में कांचबिन्दु रोग है, जो चलने की गर्मी से आँखों की ज्योति क्षीण करता है, नहीं तो हम वहाँ जाते ।" इतना कहते हुए वे उठे और उन्होंने पर्वत की ओर प्रस्थान किया । धर्मशाला की कुटी से वह स्थान लगभग दो मील होगा। महाराज ने चलना प्रारम्भ किया । विश्वास था मार्ग में विश्राम करेंगे, किन्तु वे रुके नहीं। पर्वत पर चढ़ना प्रारम्भ किया । बहुतों की साँस भर जाती थी और वे रुक जाते थे । किन्तु महाराज बिना कहीं रुके ऊपर पहुँच गये। तब यह कोई कैसे मानेगा कि महाराज की अवस्था अस्सी की हो रही थी, और उनका शरीर अन्नाहार न मिलने से क्षीण हो गया ? ऐसी शक्ति उनमें ऐसे क्षणों में दिखती थी, जब कि दूसरा मजबूत आदमी चलना-फिरना अपने लिए विपत्ति रूप ही समझेगा, महान् तप करते हुए भी महाराज के अमूल्य उपदेश सुनने का सौभाग्य भव्य जीवों को मिल जाया करता था। प्रस्थान जब संघ ने मगसिर वदी पंचमी को ललितपुर छोड़ा, तब लगभग चार-पाँच हजार जनता ने दो-तीन मील तक महाराज के चरणों को न छोड़ा। अन्त में सबने गुरुचरणों को प्रणाम किया, और अपने हृदय में सदा के लिए उनकी पवित्र मूर्ति अंकित कर वे वापिस आ गये। उस दिन धार्मिक जनता को ऐसा लगता था, मानों आज वहाँ सूनापन छा गया हो। लगभग पाँच सौ व्यक्ति सिरगन ग्राम पर्यन्त गरुदेव के पीछे-पीछे गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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