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________________ प्रभावना २३६ पारणा का दिन दो सप्ताह लम्बे उपवास के अनन्तर अब पारणा का दिन आया और उसके बाद पुनः दो सप्ताह लम्बा उपवास होना था। अतः यह आहार बड़ा महत्व का था। लेकिन यह भोजन महाव्रती मुनि का है, जो ४६ दोष और ३२ अन्तराय को टालकर तथा खड़े होकर करपात्र में ही होगा। इस नियम में जरा भी अन्तर नहीं आ सकता, प्राण भले ही चले जाँय। ये मुनिराज आगम की आज्ञा का त्रिकाल में भी उल्लंघन नहीं करेंगे। मुनि जीवन को इसी से लोकोत्तर कहा गया है। पारणा का प्रभात आया। आचार्यश्री ने भक्ति पाठ वन्दना आदि मुनि जीवन के आवश्यक कार्यों को बराबर कर लिया। अब चर्या को रवाना होना है। सब लोग अत्यन्त चिन्ता समाकुल हैं। प्रत्येक नर-नारी प्रभु से यही प्रार्थना कर रहे हैं कि आज का आहार निर्विघ्न हो जाय। क्षीण शरीर में खड़े होने की भी शक्ति नहीं दिखती, चलने की बात दूसरी है, और फिर खड़े होकर आहार का हो जाना और भी कठिन दिखता था। ऐसे विशिष्ट क्षणों में घोर तपस्वी महाराज उठे। आत्मा के बल ने शरीर को सामर्थ्य प्रदान किया, ऐसा प्रतीत होता था। विचारकता अब वे चर्या के लिए निकले। एक गृहस्थ ने पड़गाहा। विधि मिलने से महाराज वहाँ ही खड़े हो गये। उस समय उस गृहस्थ के पाँव डर से काँपने लगे कि कहीं अन्तराय हो गया तो क्या स्थिति होगी ? उस समय एक-एक क्षण बड़ा महत्वपूर्ण था। ऐसे अवसर पर चन्द्रसागर महाराज की विचारकता ने बड़ा कार्य किया। उन्होंने तत्काल ही एक अपने परिचित दक्षिण के कुशल गृहस्थ से कहा“क्या देखते हो, तुरन्त सम्हालकर आहार दान की विधि को सम्पन्न करो।" तदनुसार आहार दिया गया। वह भोजन क्या था? थोड़ी-सी गठी-आँवले की कढ़ी तथा अल्प प्रमाण में धान्य व थोड़ा-सा उष्ण जल खड़े-खड़े ही उन्होंने लिया और तत्काल बैठ गये। बस, अब आहारपूर्ण हो गया। अब इस अल्प आहार के बाद आगे लगभग एक पक्ष के बाद ये उग्र तपस्वी मुनिराज आहार लेंगे। इस आहार के निर्विघ्न हो जाने से लोगों को अपार हर्ष हुआ। भयंकर उपवासों के बीच अद्भुत स्थिरता इस प्रकार लम्बे उपवासों के बीच में ही प्रायः ललितपुर का चातुर्मास पूर्ण हो गया। बहुत कम लोग उनको आहार देने का सौभाग्य लाभ कर सके। जैनों के सिवाय जैनेतरों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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