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________________ २३५ चारित्र चक्रवर्ती संयम, समिति, ध्यान एवं समाधि के विषय में जो निरन्तर श्रम करते हैं, तथा तीव्र तपश्चर्या को करते हैं, वे श्रमण लौकान्तिक होते हैं। ६५० ॥ .. पाँच महाव्रतों से सहित, पाँच समितियों का चिरकाल तक आचरण करने वाले और पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त ऋषि लौकान्तिक होते हैं। ६५१॥ भयंकर तप और ज्वर में तेजोमय मुख मंडल उप दुर्धर तपश्चर्या के समय शरीर अत्यंत क्षीण हो गयाथा, उसका एकमात्र अवलंबन . । 'और जल भी जब न मिले, तब वह कैसे शक्ति-संपन्न होगा? भीषण ज्वर चढ़ा था, फिर भी महाराज के मुख मंडल पर एक अद्भुत आत्मतेज था। अग्नि में दाह से जिस प्रकार स्वर्ण की विशिष्ट दीप्ति दृष्टिगोचर होती है, वैसे ही तपोग्नि में तपाया गया उनका शरीर तेजपूर्ण दिखता था। आचार्य लिखते हैं - 'जो जीव अज्ञान से अत्यन्त भीषण पाप कर्म का बन्ध करता है, वे पाप कर्म उपवास से उसी प्रकार भस्म हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि के द्वारा ईन्धन।' सुकौशल मुनि की माता मर कर दुर्ध्यान से व्याघ्री हुई थी। उसने अपने ही पुत्र मुनि सुकौशल को भक्षण करके महान् पाप किया था, किन्तु जाति स्मरण होने के उपरान्त उस क्रूर शेरनी ने शान्त भाव धारण कर उपवास किया था। उससे वह स्वर्ग गई। उपवास की अग्नि में महान् पाप भस्म हो गया था। मुनि हत्या से जहाँ उसे नरक जाना था, वहाँ संयम के प्रसाद से वह जीव स्वर्ग गया। जितेन्द्रियता में अद्भुत शक्ति है। उस समय वे आत्मचिन्तन में मग्न रहते थे। आहार त्याग देने से मन विषयों की ओर नही जाता था। मन तो उनके आधीन पहले से ही था। अब वह अत्यन्त एकाग्र हो आत्मा या परमात्मा का अनवरत चिन्तन करता था। लम्बे उपवासों के विषय में चर्चा ऐसी स्थिति में बाह्य वस्तुओं की ओर से मन को दूर करते हुए वे यही सोचते थे मेरे लिए भगवान् महावीर प्रभु का ही शरण है भगवं सरणो महावीरो' । एक बार मैंने पूछा था - महाराज! ऐसे लम्बे उपवासों को करते हुए आपकी निद्रा का क्या हाल रहता था ? महाराज - ऐसे समय में नींद नाममात्र को आती थी। मैंने पूछा - तब महाराज! आप क्या सोचते थे ? महाराज - उस समय हम आत्मा का ही विचार करते थे। और पदार्थों की तरफ चित्त स्वयं नहीं जाता था। हम आर्तध्यान, रौद्रध्यान उत्पन्न न हो इसकी सावधानी रखते थे। १. यदज्ञानेन जीवेन कृतं पापं सुदारुणम् । उपवासेन तत्सर्व दहत्यग्निरिवेन्धनम्॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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