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________________ प्रभावना २३४ कठिन व्रत होता है। सिंहनिःक्रीड़ित तप . इस उग्र तप से आचार्य महाराज का शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था। लोगों की आत्मा उनको देख चिन्तित हो जाती थी कि किस प्रकार आचार्य देव की तपश्चर्या पूर्ण होती है। सब लोग भगवान् से यही प्रार्थना करते थे कि हमारे धर्म के पवित्र स्तंभ आचार्यश्री की तपःसाधना निर्विघ्न पूरी हो। आचार्य महाराज के न जाने कब से बँधे कर्मों का उदय आ गया उस तपश्चर्या की स्थिति में १०४, १०५ डिग्री प्रमाण ज्वर आने लगा। इस भीषण स्थिति में केवल अहँत का ही नाम शरण था। वह जिन नाम ही उनका एकमात्र आश्रय था। विवेकी व्यक्ति थोड़ी देर के लिए उस स्थिति को विचारे कि क्रम-क्रम से उपवास करते हुए सौ के लगभग संख्या हो जाने से शरीर क्षीण हो गया हो, शरीर में १०६ डिग्री ज्वर हो, और फिर भी शरीर को एक बूंद जल न देकर आगे पन्द्रह उपवास करने का संकल्प हो, साथ में धार्मिक क्रियाओं का पूर्णतया पालन भी हो। आज के कलिकाल में असंप्राप्त-सृपाटिका-संहनन में ऐसी तपश्चर्या की कौन कल्पना कर सकता है ? जहाँ आज के युग में दिगम्बर मुनि के सद्भाव के विषय में चित्त शंकित हो जाता था, वहाँ इतनी महान् तपश्चर्यापूर्ण सावधानी और अप्रमत्त स्थिति का रहना इस बात की द्योतक थी कि उनकी आत्मा कितनी उच्च थी ? ऐसे तपस्वियों को लक्ष्य करके ही प्रतीत होता है, कि कुंदकुंद स्वामी ने आज भी रत्नत्रयधारियों के लौकान्तिक देव इन्द्र रूप में उत्पन्न होने की बात लिखी है, जहाँ से चयकर जीव नियमतः निर्वाण को प्राप्त करता है। लौकान्तिक देव कौन होते हैं ? लौकान्तिक होने वाले देवों के विषय में तिलोयपण्णत्ति में लिखा है (अध्याय ८, श्लोक ६४६ से ६५१) : इस क्षेत्र में बहुत काल तक बहुत प्रकार के वैराग्य की भावना करके संयम से युक्त मुनिराज लौकान्तिक देव होते हैं। ६४६ ॥ सम्यक्त्व युक्त जो श्रमण स्तुति और निन्दा में, सुख और दुःख में, तथा बंधु और रिपु वर्ग में समान हैं, वही लौकान्तिक होते हैं ॥ ६४७ ॥ जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वन्द्व, निमर्म, निरारंभ और निरवद्य हैं, वे ही श्रमण (मुनि) लौकान्तिक देव होते हैं। ६४८॥ . जो श्रमण संयोग और विप्रयोग में, लाभ और अलाभ में तथा जीवित और मरण में सम दृष्टि होते हैं, वे ही लौकान्तिक देव होते हैं। ६४६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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