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________________ प्रभावना करुण दृश्य प्रस्थान करते समय का दृश्य चिरस्मरणीय था । अकारण- -बंधु, विश्व हितकर संतों के चिरवियोग की कल्पना से हजारों नेत्रों से आँसू बह रहे थे। चार माह का समय जो आचार्य महाराज के चरणों से अवर्णनीय शांति से बीता था, वह अब जनता को पुनः दुर्लभ है। इससे ऐसा लगता था, मानो हृदय पर वज्रपात हो गया हो। संतों के समागम में यही विशेष बात है, कि उनके बिछुड़ने पर बड़ी असह्य पीड़ा होती है। इस अवसर पर कोई आचार्य महाराज के तरफ दृष्टि डाले, तो वहाँ रंचमात्र भी खेद नहीं था । वे तो परम वीतराग थे । वे संसार को एक वृक्ष तुल्य देखते थे, जिस पर पक्षीगण आकर बैठते थे, प्रभात होते ही वे भिन्न-भिन्न स्थान को चले जाते थे । वैराग्य के प्रकाश में मिलने का न सुख था और न बिछड़ने का दुःख था । सच्ची अनासक्ति सच्चे श्रमणों में रहती है। निर्मोह भाव ही कल्याण का कारण है। अकलंक स्वामी ने स्वरूप संबोधन में कहा हैततस्त्वं दोषनिर्मुक्त्यै निर्मोहो भव सर्वथा । उदासीनत्वमाश्रित्य तत्त्वचिन्तापरो भव ॥ *** २३८ अर्थ : हे आत्मन् ! दोषों के क्षय हेतु तू पूर्णतया मोह रहित हो । उदासीनता का आश्रय लेते हुए तत्त्वचिंतन कर । हमने अनेक बार देखा, सैकड़ों-हजारों व्यक्ति दूर-दूर से महाराज के दर्शनार्थ आते थे। उनको जाते देखते हुए उनके वैराग्य युक्त मुख पर राग की जरा भी रेखा नहीं दिखती थी । यथार्थ में जो वैराग्य हृदयगत रहता है, उस पर बाह्य वस्तुओं का संयोग तथा वियोग क्या कर सकता है ? ललितपुर का दृश्य देखनेवाला यह कहे बिना न रहेगा, कि ऐसे संतों के चरण जहाँ पड़ेगे, वहाँ चतुर्थकाल आकर कलिकाल को दूर भगाये बिना न रहेगा, अन्यथा एक दिगम्बर अकिंचन श्रमण के प्रति हजारों नरनारी समाज का इतना अनुराग क्यों ? क्यों वे इनको परम इष्ट मान इनके वियोग से व्यथित हो रहे थे ? Jain Education International अब आचार्य देव सिरगन पहुंच गये। आज उस ग्राम वालों का भाग्य- सूर्य जगा है । दूर-दूर के ग्रामीणों ने आकर महाराज को प्रणाम किया, व्रत लिये और अपने भाग्य को सराहा। गांव वाले श्रावकों ने अपने को कृतार्थ माना, कि हमारे छोटे से ग्राम में सुरेन्द्रवंद्य ऋषिराज के चरण पड़ गये । बुंदेलखण्ड की वंदना इसके अनन्तर आचार्यश्री ने बुंदेलखण्ड के अनेक तीर्थों के दर्शन किये। पपौरा, चन्देरी, थूबोन, देवगढ़ आदि अनेक महत्वपूर्ण तथा कलामय तीर्थ बुंदेलखण्ड के अतीत वैभव, धर्म प्रेम, सुरुचि संस्कृत आध्यात्मिकता पर प्रकाश डालते हैं। सभी पुण्य स्थलों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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