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________________ प्रभावना दिया है, ऐसे नरों में सिंह सदृश महापुरुष पर्वत की गहन गुहा, अथवा एकान्त स्थान में आत्मा का ध्यान करते हैं।' एक बात और चित्त में आती है कि इनके प्रेम का शासन प्राणी मात्र पर चलता है, क्रूर जीव भी जब इनके प्रति प्रेम करते हैं तब यह स्पष्ट होता है कि इन महामुनिराज ने उनको भी अनुरंजित कर लिया है, अत: 'महाराज' शब्द का उपयोग बड़ा सामयिक और युक्ति-युक्त दिखता है। ऐसे विशुद्धि जनक स्थल पर आचार्यश्री ने बहुत शांति प्राप्त की और कर्मों की खूब निर्जरा की। महाव्रतियों की विशुद्धि प्रतिक्षण बढ़ती जाती है, उसके ही कारण चिरकालीन कर्मों का क्षय हुआ करता है। द्रोणगिरि में श्रीजी का बड़े वैभव के साथ अभिषेक-पूजन हुआ। संघ वैशाख सुदी सप्तमी को विजावर स्टेट के गोरखपुर ग्राम में पहुंचा। अष्टमी को घुवारा आया। इस प्रकार के विहार से हजारों लोगों को अहिंसादि व्रत ग्रहण का लाभ होता था। हिंसात्मक प्रवृत्तियों का परित्याग कराकर अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा अंतःकरण में अंकित कराना संतों का महान् कार्य है। उनका जगत् को यही आशीर्वाद है। सेवा नहीं कल्याण कभी-कभी कहने में आता है कि ये महापुरुष लोक-सेवा करते हैं। यहां सेवा के स्थान में हित शब्द का प्रयोग करना उचित जंचता है, कारण ये जिनेन्द्रदेव और जिनवाणी के सिवाय दूसरों की सेवा नहीं करते हैं। जिसकी सेवा की जाती है, उसमें पूज्यता माननी पड़ती है। रत्नत्रयधारी महाव्रती साधु अव्रती की सेवा करेगा, यह कैसे संभव होगा? दुःखी प्राणी के दुःखों को दूर करेगा, कल्याणमार्ग में लगाएगा। दूसरी दृष्टि से विचारें, तो कहना होगा, साधु लोगों से लोकहित स्वभाववश हो जाता है, जैसे सूर्य प्रकाश प्रदान करता है, ऐसा उसका स्वभाव है, ऐसे ही पर-हित निरत होना ही संतों का स्वभाव है। जनता उनकी सेवा करती है और आशीर्वाद के रूप में मेवा पाती है। एक सुभाषित है गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा। पांप तापं च दैन्यं च हंति सन्तो महाशयः।। गंगा पाप को, चंद्र संपात को, कल्पवृक्ष दीनता को दूर करते हैं, किन्तु उदारचेता संतजन पाप, ताप तथा दीनता सबको दूर करते हैं। इस प्रकार संतों के द्वारा स्वभावतः जगत् का कल्याण हुआ करता है। ग्रीष्म (उष्ण परिषह जय) जिन-जिन जीवों का सौभाग्य था, उन्होंने गुरुदर्शन का लाभ उठाया और व्रत से नर जन्म को भूषित किया। ग्रीष्मऋतु की भीषणता होते हुए भी आचार्यश्री की तपश्चर्या, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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