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________________ २३१ चारित्र चक्रवर्ती आज तो बड़ा विलम्ब हो गया, क्या बात हो गयी ?' वे चुप रहे। कुछ उत्तर नहीं दिया। लोगों ने पुनः प्रार्थना की। एक बोला- 'महाराज, यहाँ शेर आ जाया करता है। कहीं शेर तो नहीं आ गया था ?' अंत में स्वामीजी का मौन खुल ही पड़ा और उन्होंने बताया कि संध्या से ही एक शेर पास में आ गया। वह रातभर बैठा रहा। अभी थोड़ी देर हुई वह हमारे पास से उठकर चला गया।' प्रतीत होता है वनपति, यतिपति के दर्शनार्थ आया था। उस घटना के विषय में विचार करते हुए हमें निम्नलिखित समाधान समझ में आता है। महाराज शब्द का सौन्दर्य प्रभावना जब हम सन् १९४७ में बंबई, मंदिर-प्रवेश-कानून के विषय में बैरिस्टर सर कांगा से परामर्श लेने पहुंचे, तब प्रसंगवश शांतिसागर महाराज शब्द सुनते ही उसके दिमाग में यह बात आयी कि ये किसी राज्य के महाराज होंगे। इससे वह बोल उठा महाराज के केस की फीस कम नहीं होगी।' उसे योग्य फीस देकर परामर्श का कार्य तो हुआ, किन्तु तब से मेरे मन में यह बात थी कि क्यों इन्हें सभी लोग महराज कहते हैं ? इस वनराज आदि के प्रकरण को लिखते समय यह विचार आया कि यथार्थ में वे महाराज ही तो हैं। वनराज व्याघ्र जिनके पास शांत भाव से आवें और जो शांत रहे आवें, सर्पराज देह से लिपट जाय फिर भी जिनका धैर्य न डिगे, ऐसे पशु जगत के जीवों के द्वारा विघ्न होने पर भी जो अपने धैर्य को अचल रखते हैं, यथार्थ में राजाओं के राजा ही तो हैं। वनराज, सर्पराज आदि भी जिनके पास आकर शांत हो गये, वे उन सबके राजा ही तो माने जायेंगे। नरों में श्रेष्ठ, नरपतियों के द्वारा पूज्य तथा मोह राजा के द्वारा भी पूज्य चरण होने के कारण क्यों न ये महाराज कहे जावेंगे? व्याघ्रराज देर तक क्यों बैठा? | 'व्याघ्रराज इनके पास बहुत देर क्यों बैठा?' इस प्रश्न का हमारी दृष्टि से यह उत्तर होगा कि मृग-पति ने नरपति को देखकर सद्भावना व्यक्त की होगी। किसी नरेश की दूसरे नरेश से भेंट होने पर सहज सौजन्यवश मैत्री का व्यवहार व्यक्त किया जाता है। दूसरी बात, वह तो व्याघ्र था, किन्तु ये थे नरसिंह। इन नृसिंह के चरणों के समीप सादर शेर का बैठना उपयुक्त दिखता है। गुणभद्र स्वामी ने मुनियों को नृसिंह लिखा है 'जिन्होंने सर्व परिग्रह को छोड़कर एकाकीपने का नियम धारण किया है, जो सर्व प्रकार के संकटों को सहन करने के सामर्थ्य समन्वित है, भ्रांतिवश शरीर को सहसा अपना सहायक सोचा था, इस विचार के सहसा आ जाने से जिनके चित्त में किंचित्त लज्जा का भाव उत्पन्न हो गया है, जो अपने आत्म शोधन के कार्य में तत्पर हैं, कर्म रूप शरीर के निवारण के हेतु जिन्होंने पल्यंक आसन बाँध ली है, जिन्होंने मोह का ध्वंस कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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