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चारित्र चक्रवर्ती श्रीजी की कृपा से सफल मनोरथ होता है। एक सिक्ख भाई ने बताया था कि वे गुरुद्वारे की सम्पत्ति को स्वयं के उपभोग में नहीं लाते हैं। ऐसा करना उनके धर्म में वर्जित है।
कुन्दकुन्द भगवान् की यह वाणी भी धर्मादे की रकम से सम्बन्ध रखने वालों को हृदय में रखना चाहिए - ‘पूजा-दान में विघ्न करने का फल क्षय रोग, कुष्ठ, मूल व्याधि, शूल, लूथ, भगन्दर, जलोदर, खिसिर, शीत तथा उष्ण की बाधाएँ हैं।''
इन आगम के प्रकाश में समाज, विद्वज्जन तथा अन्य शिक्षित लोग विचार लें कि धर्मादा का द्रव्य मन के अनुसार स्वार्थ साधन करने योग्य नहीं है, वह परमार्थ की वस्तु है। जैसे बाहर लगाने वाली औषधि को यदि कोई खा जाय, तो कभी-कभी वह रोगमुक्त करने के बदले में रोगी को ही समाप्त कर देती है, इसी प्रकार देव-द्रव्य का मनमाना उपभोग विपत्ति का कारण होगा। देव-द्रव्य
एक दिन मैंने आचार्यश्री से पूछा था- “महाराज! अब देव-द्रव्य पर सरकार की शनि दृष्टि पड़ी है, ऐसी स्थिति में उसका क्या उपयोग हो सकता है ?"
महाराज ने कहा था- “अपने ही मन्दिर में उसका उपभोग करने का मोह छोड़कर अन्य स्थानों के भी जिन मन्दिरों को यदि आत्मीय भाव से देखकर उनके रक्षण, व्यवस्था, जीर्णोद्धार आदि में रकम का उपयोग करोगे, तो विपत्ति नहीं आयेगी।"
धर्मादा की रकम का ठीक-ठीक उपभोग करने से मनुष्य समृद्ध होता है, वैभवसम्पन्न बनता है। उसी द्रव्य को स्वयं हजम करने लगे, तो सम्पत्ति को क्षय रोग लगता जाता है। आदमी पनपने नहीं पाता है। जिन प्रान्तों में मन्दिर के द्रव्य को जैनी भाई खाते हैं, वहाँ उनकी दरिद्रता की स्थिति देखकर दया आती है। अतः इस विषय में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति रखना श्रेयस्कर है। आगम की आज्ञा से डरना चाहिये लोकमत से नहीं
कभी-कभी बड़े-बड़े व्यापारी लोग धर्मादा के नाम से लोगों से द्रव्य लेते जाते हैं और उसका स्वार्थ साधनार्थ उपभोग करते हैं। यह पद्धति बिलकुल उल्टी है। वह द्रव्य पारमार्थिक कार्यों के लिए अमानत के रूप में तुम्हारे पास है। उसके प्रति बेईमानी करना बहुत बड़ा पाप है। अमानत की वस्तुको खाजाने से राजदण्डभी मिला करता है। अतएव समझदार व्यक्तियों का कर्तव्य है, कि जीर्णोद्धार आदि आवश्यक कार्यों के हेतु जब विपुल क्षेत्र विद्यमान हैं, उसकी उपेक्षा करके स्कूल, कालेज आदि पूर्णतया लौकिक कार्यों में परमार्थ सम्बन्धी देव-द्रव्य का
१. खयकुछमूल-मूलो-लूनिभयंदर-जलोदरखिसिरो।
सीदुण्हवाहिराई-पूजादाणंतराय-कम्मफलं ॥३६,रयणसार (कुंदकुंदाचार्यकृत)॥
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