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________________ प्रभावना २२४ के जीर्णोद्धार के कार्य में यदि द्रव्य का व्यय करो, तो धर्म रक्षण होगा।' धर्मादा के द्रव्य के उपयोग के बारे में जोशीले तरुण मनमानी व्यवस्था सोचते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में आगम के प्रकाश में ही प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर होगा। कई पंडितनामधारी भाई भी लोकमत का समर्थन करके यश लूटने में कृतार्थता का अनुभव करते हैं। आगम की आज्ञा का लोप होकर दुर्गति का भय उनको नहीं रहता है। ऐसे प्रसंग पर आचार्य महाराज से समाज को प्रकाश प्राप्त करना चाहिए। जिन कुंदकुंद स्वामी के प्रति समाज अत्युत्कट भक्ति दिखा अपने को कुन्दकुन्दान्वय वाला कहती है, तथा ऐसा ही लेख प्रतिमाओं में बांचती है, उन महर्षि की वाणी इस सम्बन्ध में क्या कहती है, उसे बड़े ध्यान से पढ़ना चाहिए और शान्त भाव से विचारना चाहिए कि लोक-प्रवाह पतन की ओर ले जाने वाला है, या कल्याण की ओर। उन्होंने रयणसार में लिखा है कि 'जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, जिनपूजा, तीर्थवंदना विषयक धन को जो भोगता है, जिनेन्द्र की वाणी है कि वह नरकगति के दुःख को भोगता है।" ऐसे दुःखों से न पंचायतों का प्रस्ताव बचा सकेगा और न कुछ पंडितों या दूसरों का दिया गया प्रमाणपत्र ही काम आएगा। जैनधर्म में कर्मों के भोगने में कोई भी सिफारिश काम नहीं आती है। अतएव लोग विचार कर सोचें, कि मंदिर के द्रव्य को उपरोक्त कामों के विपरीत मन के अनुसार कामों में खर्च करने से उनको कितनी बड़ी विपत्ति भोगनी पड़ेगी। हमें लोकवाणी के स्थान में जिनेन्द्र की वाणी को मानना चाहिए। जो भाई धर्मादा की रकम को अपने काम में लाते हैं और समाज के बीच विषमता तथा विसंवाद के कारण बन जाते हैं उनको महर्षि कुन्दकुन्द स्वामी की यह चेतावनी भी चित्त में लाना चाहिए-'भगवान् की पूजादान आदि सम्बन्धी द्रव्य को लेने वाला व्यक्ति पुत्र तथा स्त्री से रहित हो जाता है, दरिद्र, पंगु, मूक, वधिर, अंध तथा चांडालादि नीच पर्यायों में उत्पन्न होता है।'२ एक धर्मात्मा भाई कहते थे कि जब हमारे पास धर्मादा का द्रव्य था, और हमने उसके हिसाब की सफाई नहीं रखी, तब बहुत कष्ट उठाते हुए भी हमारा व्यापारिक जीवन हीन ही रहा आता था, किन्तु जबसे हमने मन्दिर के द्रव्य को जलते हुए अंगारे की भाँति समझकर उसका अपना व्यक्तिगत सम्बन्ध रंचमात्र भी नही रखा, तबसे जिस काम में हाथ लगाते हैं, १. जिष्णुद्वार-पदिट्ठा-जिणपूजा-तित्थवंदण-विसेयधणं। जो भुंजइ सो भुंजइजिंणं दिट्ठणिरयगई दुक्खं ॥३२, रयणसार (कुंदकुंदाचार्य कृत)। २. पुत्तकलत्तविदूरो दारिदो पंगुमूकबहिरंधो। चांडालाइकुजादोपूजादाणाइदव्व-हरो॥३३,रयणसार (कुंदकुंदाचार्यकृत)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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