________________
२२३
चारित्र चक्रवर्ती जाको जस जंपत प्रकाश जगे हिरदे में, सोई सुद्धमती होई हुती जो मलिन सी। कहत बनारसी सुमहिमा प्रकट जाकी,
सोहे जिनकी छवि है विद्यमान जिनसी॥ दिगम्बर जैनियों में तारणपंथी वर्ग मूर्ति पूजा का महत्व नहीं सोच पाता है। वे यदि जिनागम को प्रमाण मानते हैं, तो उन्हें नंदीश्वर की अकृत्रिम मूर्तियों आदि की पूजा से सम्बन्धित अष्टाह्निका पर्व की महिमा का रहस्य ध्यान में लाना चाहिए। धवल ग्रंथ में जिनप्रतिमा को सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण बताया है। यह दोहा महत्वपूर्ण है :
जिन प्रतिमा अरु जिन भवन कारन सम्यक्ज्ञान।
कृत्रिम और अकृत्रिम तिनहिं नमो धर ध्यान । दुःख है कि ऐसी पूज्य प्रतिमाओं के संरक्षण में लोगों की शोचनीय उपेक्षा का भाव रहा आता है। विधान सभा के एक सदस्य ने बताया था, कि उनको कटनी तथा जबलपुर के बीच में अनेक स्थलों पर इतनी अधिक जिन मूर्तियां मिली, कि जिनको सामान्य पाषाण सदृश सोचकर कहीं-कहीं लोगों ने अपने मकानों में लगा रखा है। प्राचीन मूर्ति संग्रहालय की आवश्यकता
यदि समाज एक प्राचीन मूर्ति संग्रहालय बनाने का कार्य करे, तो धर्म की सेवा के साथ पुरातत्त्व प्रेमी समाज का ज्ञान संवर्धन भी होगा। जबलपुर के पास मढ़ियाजी के स्थान में आचार्य शांतिसागर महाराज रहे थे। वहाँ ही यदि नोहटा की प्राचीन मूर्ति के प्रति आदरभाव को आदर्श बना उक्त संग्रहालय का कार्य किया जाय, तो श्रेयस्कर होगा। आज सरकारी कानूनों का रूप-रंग ऐसा दिखता है, कि उनसे मन्दिरों का धन समाज के हाथ से संग्रहीत नहीं रह पायगा, ऐसी स्थिति में जिनधर्म के आयतनों में विवेकपूर्वक उस द्रव्य का उपयोग करना चतुरता का कार्य होगा। धार्मिक संपत्ति/रकम का किस काम में उपयोग हो सकता है ?
किन्ही लोगों की समझ ऐसी है कि मंदिर की संपत्ति को स्कूल, पाठशाला आदि के काम में व्यय करना चाहिए। छात्रों को छात्रवृत्ति देना चाहिए। गरीब जैनों को सहायता देना चाहिए। इस विषय में मैंने एक बार आचार्य महाराज से पूछा था कि महाराज! मन्दिर के द्रव्य का छात्रवृत्ति, दान, गरीब जनों की सहायता आदि के कार्य में उपयोग करना क्या उचित है ?
महाराज ने कहाथा कि- 'उन कामों में द्रव्य देना योग्य नहीं है। मंदिर की संपत्ति को जो भी श्रावक खायेगा, उसका अहित होगा।' महाराज ने बताया था- 'मंदिरों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org