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________________ १६६ चारित्र चक्रवर्ती इस कारण उन्होंने सब वैभव का त्याग करने का निश्चय करके पौष कृष्णा एकादशी को दिगम्बर मुनि की दीक्षा ग्रहण की। जन्मोत्सव वैराग्य के उत्सव रूप में परिणत हो गया। कलि पौष इकादशी आई, तब बारह भावन भाई । अपने करलोंच सु कीना, हम पूजै चरण जजीना ।। प्रयाग (इलाहाबाद) तीर्थंकर युगल के जीवन से पुनीत काशी में कुछ काल व्यतीत कर आचार्य संघ ने ज्येष्ठ वदी चौथ को प्रयाग के लिए प्रस्थान किया। काशी और प्रयाग के बीच १२० मील का अन्तर है। ज्येष्ठ बदी त्रयोदशी को संघ प्रयाग पहुंचा और गंगा के तीर पर ही ठहरा था। चौदस को गाजे बाजे के साथ संघ का जुलूस शहर से होता हुआ तथा जिन मंदिरों के दर्शन करता हुआ धर्मशाला में ठहरा । इस नगर का प्राचीन नाम तो प्रयाग ही है, किन्तु मुगलों ने अपने शासनकाल में इसे इलाहाबाद नाम से कहना आरंभ किया। यहां चार दिन से आचार्य शांतिसागर महाराज को ज्वर आने लगा। इससे उनका शरीर क्षीण हो गया। इस कारण संघ को दस दिन तक ठहरना पड़ा। ज्येष्ठ सुदी चतुर्थी को मुनि वीरसागर जी, मुनि नेमिसागर जी का केशलोच हुआ। हजारों लोगों ने केशलोच देखा और जैन साधुओं की निस्पृहता तथा उत्कृष्ट तपश्चर्या की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। ऐसा कौन वज्र हृदय होगा, जिसकी आत्मा ऐसी तपस्या देख कर भक्ति से नम्र न हो ? प्रयाग जैन संस्कृति का अत्यन्त प्राचीन काल से केन्द्र रहा आया है। भगवान ऋषभनाथ को अपने समक्ष सुन्दर नृत्य करती हुई नीलाना अप्सरा की मृत्यु देखकर वैराग्य उत्पन्न हुआ। उससे उनका मन परिवार, प्रजा तथा वैभव से विमुख हो गया। पश्चात् उन्होंने प्रयाग के अरण्य में दीक्षा ली थी, ऐसा कवि वृन्दावन ने लिखा है "कियो कचलौच प्रयाग अरण्य, चतुर्थम ज्ञान लह्यो जगधन्य ॥" तिलोयपण्णति(अध्याय ४-श्लोक ६४३ तथा ६४४) में लिखा है कि : "चौबीस तीर्थकारों में से भगवान नेमिनाथ द्वारावती नगरी में और शेष तीर्थंकर अपने अपने जन्म स्थानों में जिनेन्द्र दीक्षा को ग्रहण करते हैं।" "भगवान ऋषभदेव चैत्र कृष्ण नवमी के तीसरे प्रहर उत्तराषाढ़ नक्षत्र में सिद्धार्थ वन में षष्ठ उपवास के साथ दीक्षित हुए।" प्रयाग की पूज्यता का हेतु भगवान की जन्म भूमि अयोध्यापुरी थी। दीक्षाधारण नेमिनाथ भगवान के सिवाय शेष तीर्थंकरों का जन्म-पुरी में हुआ था, ऐसा उपरोक्त आर्ष कथन है, इससे प्रतीत होता है कि अयोध्या नगर प्रयाग तक विस्तृत रहा होगा और प्रयाग अयोध्या का अंग रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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