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तीर्थाटन होगा। प्रतीत होता है जैसे काशी की पवित्रता का जैन संस्कृति के अनुसार कवि बनारसीदास ने वर्णन किया है, इसी प्रकार प्रयाग की पूज्यता का कारण आदिनाथ प्रभु का वहां के अरण्य में दीक्षा ग्रहण करना रहा है, किन्तु अब सांस्कृतिक संघर्ष वश वैदिक संस्कृति के श्रेष्ठ तीर्थ के रूप में उसकी प्रसिद्धि हो गई और जैन दृष्टि लुप्त प्रायः प्रतीत होने लगी। वस्तुतः काशी के समान प्रयाग को भी जैन संस्कृति का मुख्य स्थल मानना होगा। वैदिक वाङ्मय काशी, कौशल, मगध को अहिंसात्मक विचार धारा का केन्द्र बताता ही है।
प्रयाग, गंगा यमुना के संगम के रूप में विश्वमान्य हैं। यह इस बात का सूचक है कि भारतीय दृष्टि में पार्थक्य की नहीं, ऐक्य की पूज्यता थी, इसका प्रतीक संगम का समादर है। महत्व की वस्तु में धर्म का तत्त्व लगा देने की वैदिक पद्धति रही है।
प्रयाग से ज्येष्ठ सुदी ८,ताः २७ मई को संघ ने रीवा राज्य की ओर प्रस्थान किया।
संघ असाढ़ वदी सप्तमी, १० जून सन् १९२८ को रीवा पहुंचा। सरकारी हाथी, घोड़े, बैंड बाजा आदि के साथ जनता ने बड़ा भव्य स्वागत करते हुए संघ का जुलूस नगर में निकाला। कोई तार्किक पूछ सकता है कि इन निस्पृह, वीतराग मुनियों को जलूस से क्या प्रयोजन है ? ___ यह सत्य है कि इनको इन वस्तुओं की जरूरत नहीं है, न इनके आने में इनका कृत, कारित, अनुमोदन, मन, वचम काय से सम्बन्ध है; किन्तु इसका लोक कल्याण के साथ सहज सम्बन्ध है। हजारों जीव इन वीतराग महर्षियों के जुलूस को देखकर प्रणाम करते हैं, इनके चरण-रज को मस्तक पर रखते हैं और अपनी पवित्र श्रद्धांजलि अर्पित कर पुण्य का संचय करते हैं। अतः इसका आध्यात्मिक महत्व बहुत है। लोगों में आध्यात्मिक तत्त्व की अभिवन्दना का उत्साह तथा उमंग उत्पन्न होती है।
बहुत लोगों ने आचार्य देव के पास व्रत नियमादि ग्रहण किए थे। महाराज तो व्रत की निधि सर्वत्र बांटते थे, जिनके प्रसाद से यह जीव ऐसे वैभव को प्राप्त करता है,जिसको बड़े-बड़े नरेन्द्र प्रणाम करते हैं, देवेन्द्र तक जिसकी पूजा करते हैं। संयम के द्वारा क्या नहीं प्राप्त होता है? संयम का प्रसाद वितरण
इसलिए ये महासंयमी जगत् भर के जीवों को संयम की संजीवनी पिलाते हुए तथा उनके मोह ज्वर को दूर करते हुए आगे बढ़ते जाते थे। लोक कल्याण तथा राष्ट्र हित की अगणित सफल योजनाओं द्वारा जीवों का जितना हित हो सकता है, उससे असख्यात गुणित आत्म- कल्याण का पवित्र कार्य इन महापुरुषों के निमित्त से हुआ तथा होता जायेगा। जितेन्द्रिय संयमी तथा अहिंसा महाव्रती मानव के द्वारा आत्मकल्याण के साथ
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