________________
तीर्थाटन
१७५
करना, उसे सजाना तथा उसकी निरंतर सेवा करना मुक्ति के शत्रु की भक्ति करने सदृश लगता है। आत्मध्यान द्वारा चैतन्यमय, आनन्द पुंज आध्यात्मिक विभूति की उपलब्धि होने के कारण दिगम्बर श्रमणों का ध्यान देह आदि की ओर नहीं जाता है । यथार्थ में चित्तवृत्ति उस ओर जाकर लीन होती है, जहां उसे अच्छा लगता है । जैसे लौकिक कार्यों में लगे हुए लोग अर्थ लाभ की लालच से शरीर आदि की सुध नहीं लेते इसी प्रकार आत्म रूप में निमग्न साधु लोग आत्म - कथा तथा आत्मचिंतन की बातों के सिवाय अन्य विषयों में नीरसता का अनुभव करते हैं । सूर्योदय होने पर जैसे चंद्र और तारिकाओं का समूह विलीन हो जाता है, इसी प्रकार निर्मल आत्मा की अनुभूति होने पर शरीर आदि को सुख देनेवाली सामग्री का ध्यान नहीं रहता। इन वंदनीय आध्यात्मिक विभूतियों के जीवन से न्याय निर्माताओं को प्रकाश प्राप्त करना था, किन्तु इसे भूल कोई-कोई उनके सिर पर अपने कानून का अंकुश रखने की चेष्टा करते हैं । नादिरशाही आदेश
सन् १६५१ की बात है । नीरा जिला पूना में नवनिर्मित सुन्दर जिन मंदिर की प्रतिष्ठा के समय हजारों जैन बंधु आये थे। उस समय आचार्य शाँतिसागर महाराज भी वहां विराजमान थे । पूना के जिलाधीश ने विवेक से काम न ले आचार्य शांतिसागर महाराज सार्वजनिक विहार पर बंधन लगा दिया, जिससे भयंकर स्थिति उत्पन्न होने की संभावना
थी। । उद्योगपति सेठ लालचन्द हीराचन्द, सदस्य, केन्द्रीय परिषद तथा स्व. मोतीचन्द भाई कान्ट्रेक्टर बम्बई ने गृहमन्त्री श्री मोरारजी भाई के समक्ष उपस्थित हो उक्त जिलाधीश के विवेक शून्य आदेश की ओर ध्यान दिलाया। इसलिए सहृदय गृहमंत्री महोदय, ने जिलाधीश को विशेष आदेश देकर नादिरशाही आर्डर को वापस लेने की विशेष आज्ञा दी ।
सन् १९३८ में निजाम राज्य में मुनि विहार के विरुद्ध राज्याधिकारियों ने आदेश निकाला था। उस समय आचार्य महाराज के आदेशानुसार हमें हैदराबाद जाने का अवसर मिला था । एक जैन प्रतिनिधि मंडल निजाम की कार्यकारिणी के तीन सदस्यों से चौदह सितम्बर को मिला था और उसने जैन मुनियों की पवित्र वृत्ति तथा उज्ज्वल जीवन चर्या आदि को समझाया था। जैन प्रतिनिधि मंडल की बातों से निजाम सरकार के अधिकारियों का भ्रम दूर हुआ था, इसलिए २ नवंबर सन् १६३८ को विशेष फरमान द्वारा मुनि विहार प्रतिबंध के आदेश को रद्द किया था । उस समय हमने दिगम्बरत्व की पुष्टि (Nudity of Jain Saints) नाम की एक पुस्तक अंग्रेजी में लिखी थी। उससे कार्य शीघ्र सम्पन्न हुआ था । आदिवासियों की कल्याण साधना
रायपुर में धर्म प्रभावना के उपरान्त संघ २० जनवरी को रवाना होकर आरंग होते हुए संभलपुर पहुचा। वहां से प्रायः जंगली मार्ग से संघ को जाना पड़ा था। उस जगह इन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org