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चारित्र चक्रवर्ती दिगंबर गुरु के द्वारा सरल ग्रामीण जनता का कल्याण हुआ था। रास्ते भर हजारों लोग इन नागा बाबा के दर्शन को दूर-दूर से आते थे। इन्हें भगवान सा समझ वे लोग प्रणाम करते थे तथा इनके उपदेश से मांस खाना, शराब पीना, शिकार खेलना, आदि पापाचारों का सहज ही त्याग करते थे। जहाँ देखो वहाँ दर्शन प्रेमियों का मेला सा लग जाता था। संघ का राँची पहुँचना
इस प्रकार सच्चा लोक-कल्याण करते हुए आचार्य महाराज का संघ १२ फरवरी को रांची पहुंचा। वहां बहुत लोगों ने अष्टमूलगुण धारण किये। वहाँ के सेठ रायबहादुर रतनलाल सूरजमलजी ने धर्मप्रभावना के लिये बड़ा उद्योग किया था। आचार्य संघ के द्वारा यज्ञोपवीत ग्रहण करने का उपदेश सुनकर कुछ लोगों ने शंका की कि महाराज यह तो वैदिक संस्कृति का चिह्न है, जैनियों को यज्ञोपवीत लेने का क्या कारण है ? आचार्य महाराज ने समझाया कि “आगम में यज्ञोपवीत संस्कार बताया गया है, वह रत्नत्रय धर्म का प्रतीक है। दान पूजा का अधिकार उसे प्राप्त होता है, जिसका कि यज्ञोपवीत संस्कार हुआ हो।"महापुराण में द्विज उसे बताया है जिसका माता के गर्भ से तथा क्रिया से जन्म हुआ हो । इस प्रकार संस्कार के द्वारा जन्म वाला द्विज कहलाता है। हरिवंशपुराण, पर्व ४२, श्लोक ५ में नारद के यज्ञोपवीत धारण का उल्लेख इन शब्दों में आया है
देहस्थितेन शुद्धेन त्रिगुणेमोजवलीकृतः ।
____ यज्ञोपवीतसूत्रेण स रत्नत्रितयेन वा ।। वे अपने शरीर पर स्थित तीन लर के उस शुद्ध यज्ञोपवीत सूत्र से अत्यन्त उज्ज्वल थे जो रत्नत्रय के समान था। ___ महापुराण में चक्रवर्ती भरत के यज्ञोपवीत धारण करने का हम उल्लेख कर चुके हैं। आचार्य महाराज के उपदेश से लोगों को संतोष हुआ तथा बहुतों ने रत्नत्रय के प्रतीक यज्ञोपवीत लिए। यदि यह कार्य आगम समर्थित न होता तो आगम प्राण आचार्य महाराज उसके प्रचार को कभी भी महत्व न देते, यह बात विवेकी सत्पुरुषों को सोचना उचित है। फाल्गुन सुदी तृतीया को शिखरजी पहुँचना
संघ हजारीबाग पहुंचा तब वहाँ के समाज ने बड़ी भक्ति प्रगट की। ऐलक पन्नालाल जी संघ में सम्मलित हो गये, वहाँ से चलकर संघ फाल्गुन सुदी ३ को तीर्थराज शिखरजी के पास पहुंच गया। उस समय सब को अवर्णनीय आनंद की प्राप्ति हुई। सम्मेदशिखर
सम्मेदशिखर का दर्शन होते ही प्रत्येक यात्री के अंतःकरण में आनंद का रस छलका सा पड़ता था। अगणित सिद्धों की सिद्धि के स्थल शिखरजी का मंगल संस्मरण जब
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