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________________ तीर्थाटन १७३ देते है।"अतः मुनि वचन को सत्य जानकर राजपुत्र ने लाक्षा रस से वापिका भरवाई। उसे रक्त मानकर हर्षित हो राजा अरविंद उसमें घुसा और जब उसे लाक्षा स्वाद आया, तो क्रुद्ध हो वह पुत्र के वध को तलवार ले झपटा और गिर कर मर गया। इस प्रसंग में यह बात ध्यान देने की है कि पिता की आज्ञा न पालकर राजकुमार ने उचित कार्य किया था। बड़ों की धर्म के अनुकूल आज्ञा को पालन करना उचित है, किन्तु धर्म विरुद्ध आज्ञा न पालना पवित्र कर्तव्य है, क्योंकि धर्म का आदेश सर्वोपरि है। ऐसे ही आज दिन हिंसक प्रयोग तो समर्थ पुरुषों को श्रेयस्कर दिखते हैं, किन्तु महर्षि मुनिवर के महान् अनुभव से लाभ लेकर मानवता को कलंक मुक्त बनाने की बात उनके दृष्टि पथ में नहीं आती। बताए जाने पर भी नहीं दिखती है। 'सच्चा कल्याण पाप परित्याग में है' इस आचार्य वाणी पर जब ध्यान चला जायगा, तब ही कल्याण की प्राप्ति होगी। पाप-पंक में निमग्न होते हुए सच्ची उन्नति तथा शांति असंभव है। आगे राजनांदगांव रियासत आई। वहां के श्वेताम्बर भाइयों ने भी दिगम्बर बंधुओं के साथ पूज्यश्री के संघ का स्वागत तथा हार्दिक अभिवंदन किया। दीवान आदि बड़े अधिकारी लोग भी जुलूस में रहे तथा महाराज का उपदेश सुनने को भी आए थे। यहाँ से चलकर संघ ता. १३ को दुर्ग पहुंचा। यहाँ जहां भी जैनी भाई मिलते, उनको अष्टमूलगुण धारण पूर्वक यज्ञोपवीत दिया जाता था। कारण संस्कारात् द्विज उच्यते" संस्कार के कारण त्रिवर्णवालों को द्विज कहते हैं। बिना संस्कार के शास्त्र की परिभाषा के अनुसार उच्चकुल वाले भी शूद्र संज्ञा को प्राप्त करते हैं। महापुराण में जिन मोक्षगामी पुरुषों का चित्रण किया गया है, उनके शरीर में यज्ञोपवीत का वर्णन किया गया है। यह व्रत चिह्न है, "व्रतचिहं दधत्सूत्रम् "(महापुराण)। इसी से आगम की आज्ञा को प्रमाण मानने वाले संघ के तत्त्वावधान में यह कार्य हुआ। महापुराण, पर्व १५, श्लोक १६४ में लिखा है कि ऋषभनाथ तीर्थंकर ने भरत के अन्नप्राशन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार स्वयं किए थे: अन्नप्राशन-चौलोपनयनादीननुक्रमात् । क्रियाविधीन विधानज्ञः स्रष्टैवास्य निसृष्टवान् ।। वैदिकों से जैनों ने यज्ञोपवीत संस्कार लिया, यह धारणा अयथार्थ है। अन्यथा कोई यह भी कहेगा मुनिराज स्नान नहीं करते। अतः उनकी संस्कृति में गृहस्थ को स्नान का कथन ब्राह्मण धर्म का प्रभाव है। सत्यमहाव्रती जिनसेन स्वामी के समय में अमोघवर्ष प्रतापी जैन राजा का शासन था, अतः दूसरों के प्रभाव में आने की कल्पना सत्य से बहुत दूर है। जैन संस्कार का ध्येय मंत्रादि भिन्न हैं। इससे हजारों लोगों ने व्यवस्थित रूप से अष्टमूलगुणों का नियम लिया। आत्मा के उत्कर्ष के लिए थोड़ा भी व्रत कारण हो जाता है। यमपाल चांडाल जरा-सा अहिंसा व्रत लेकर नियमपाल बना, अतः उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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