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________________ १७२ चारित्रचक्रवर्ती उत्कर्ष के लिए अंतःकरणवृत्ति का परिमार्जन किया जाना, परिष्कृत बनाया जाना आवश्यक है। आचार्य महाराज का कथन यही है कि गरीबों का सच्चा उद्धार तब होगा, जब उनकी रोटी की व्यवस्था करते हुए उनकी आत्मा को मांसाहारादि पापों से उन्मुक्त करोगे। पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है इसी सम्बन्ध में वर्धा में सन् १९४८ के मार्च माह में मैं वर्तमान राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी से मिला था, लगभग डेढ़ घंटे चर्चा हुई थी। उस समय हरिजन सेवक पत्र के संपादक श्री किशोर भाई मश्रुवाला भी उपस्थित थे। श्री विनोवा भावे से भी मिलना हुआ था। मैंने कहा था कि गरीबों के हितार्थ कम से कम धर्म के नाम पर किया जाने वाला पशुओं का बलिदान बन्द करने के विषय में प्रचार कार्य होना चाहिए। सर्वोदय समाज को भी इसमें क्रियात्मक सहयोग देना चाहिए, किन्तु यह मंगल योजना कार्यान्वित करने में उन्होंने अपने को असमर्थ बताया। __ यही चर्चा सन १६४६ में मुबंई के गृहमंत्री श्री मोरारजी देसाई से चलाई थी, तब उन्होंने कहा था कि सरकार की बात जनता सुनती नहीं है। मौलिक सुधारों के स्थान में पत्तों के सीचनें द्वारा वृक्षों को लहलहाता, हराभरा देखने की लालसा आजकल के लोक-सेवकों के मन में स्थान कर गई है। क्या पत्र सिंचन भी कभी इष्ट साधक हुआ है ? सच्चे लोक कल्याण की आकांक्षा करने वालों को आचार्य महाराज से प्रकाश प्राप्त करना चाहिए था, किन्तु उनकी दृष्टि में इतनी महान आत्मा नहीं दिखाई पड़ती है। मोहान्धाकर वश ऐसा ही परिणमन होता है। अरविंद नरेश का पथानुसरण ठीक नहीं इस प्रसंग में हमें महापुराण का एक कथानक स्मरण आता है। एक राजा अरबिन्द थे। उसके शरीर में भयंकर दाह व्यथा उत्पन्न हो गई। उसके अनुभव में आया कि यदि रक्तपूर्ण वापिका में वह स्नान करेगा, तो उसकी पीड़ा शान्त हो जायगी। अरविन्द नरेश ने राजकुमार को बुलाकर आदेश दिया कि पास के वन-हरिणों को मारकर उनके रक्त से वापी भरवाकर स्नानार्थ तैयार करवाओ। जब युवराज वन में पहुंचा तो वहां दया के देवता दिगम्बर जैन गुरु का दर्शन मिल गया। गुरु चरणों में उसने प्रणाम किया। मुनिराज को अवधिज्ञान था। उसके द्वारा विचार कर उन्होंने कहा-“अरविन्द राजा की शीघ्र ही मृत्यु होनी है। तुम हरिणों का घात कर उनके रक्त द्वारा वापिका भरने का पाप कार्य मत करो।" राजपुत्र को विश्वास कराने के लिए उन्होंने कहा-“तेरे पिता को विभंगावधि हो गया है। अतः जिस प्रकार उसे जंगल के हरिणों का ज्ञान हो गया, उस प्रकार उससे पूछो, कि वहां कोई मुनिराज भी दिखते हैं या नहीं।" राजपुत्र ने पिता से पूछा, तो उसने कहा-“वहां हरिण मात्र ही मुझे दिखाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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