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________________ तीर्थाटन सत्पुरुष सेठ दाड़िमचंद जी से परिचय हुआ था। अब पंचकल्याणक की तैयारी विद्युत वेग से आरंभ हुई। सिवनी के महान दानशील श्रीमंत सेठ पूरनसाहजी ने सन् १६०६ में शिखरजी पर जो मुक्त हस्त हो दान देकर महिमाशाली पंचकल्याणक कराया था, जिसमें भारतवर्ष के लाख के लगभग जैन बंधु आए थे और श्रेष्ठ प्रबंध सबकी प्रशंसा की वस्तु रहा था, उसका निकटतम अनुभव हमारे पिताजी का रहने से इस १६२८ के फाल्गुन मास के महोत्सव के लिए उनका मार्गदर्शन योजनाएं एवं सहयोग बड़े महत्वास्पद रहे । पिताजी का अनुभव, प्रभाव और मार्गदर्शन इस महान् कार्य के लिए उपयोगी रहे थे । १७१ नागपुर समाज ने चांदी के पत्र में उत्कीर्ण संस्कृत में लिखा गया सुन्दर मानपत्र संघपति को सेठ मोतीसाव गुलाबसाव जी के हाथ से भेंट कराया था। रत्नत्रय मूर्ति का धर्मसंघ तीन दिन तक धर्मामृत वर्षा के उपरांत ता. ६ जनवरी को भंडारा के लिए रवाना हो गया। यदि संघ रामटेक, सिवनी के मार्ग से जाता तो विशेष धर्मलाभ होता, भव्यों का कल्याण भी होता; किन्तु वह रास्ता कुछ लम्बा सोचा गया, अतः दूसरे मार्ग से रवाना हुआ। आचार्य महाराज ने एक बार कहा था, हमारा तुम्हारे साथ पहले परिचय नहीं था, नहीं तो हम सिवनी में अवश्य आते। अब भी हमारा भाव आगे शिखरजी तरफ समाधि हेतु जाने का होता है । उस समय थोड़े व्यक्तियों के साथ सिवनी होते हुए जावेंगे। दैववश विचार कार्यरूप न हो पाये। भंडारा के पश्चात संघ साकोली पहुंचा। वहाँ सेतवाल भाइयों ने संघ का दर्शन किया तथा दस बारह स्त्रियों ने पुनर्विवाह न करने की प्रतिज्ञा ली, कारण इस समाज में पुनर्लग्न की कुप्रथा कुछ काल से आ गई थी। ऐसा ही दक्षिण प्रांत में हुआ। आचार्य महाराज के उपदेश के प्रभाव से लाखों व्यक्तियों ने पुनर्विवाह को हीनता का कारण स्वीकार करते हुए उसका प्रचार बंद करने की सुदृढ़ प्रतिज्ञा की । साकोली में बहुत से जैन कलार भाइयों ने महाराज का दर्शन किया। ये लोग पहले जैनी थे, जैसा उनके नाम से स्पष्ट होता है, किन्तु उपदेश न मिलने से और जैन तत्त्वों का परिचय न होने से अपने धर्म पूर्णतया भूल गए । कुछ जैन कलारों ने महाराज से व्रत नियम लिए थे । अगणित ग्रामीणों का व्रतदान द्वारा उद्धार छत्तीसगढ़ प्रांत के भयंकर जंगल के मध्य से संघ का प्रस्थान हुआ । दूर-दूर के ग्रामीण लोग इन महान मुनिराज के दर्शनार्थ आते थे । महाराज ने हजारों को मांस, मद्य आदि का त्याग कराकर उन जीवों का सच्चा उद्धार किया था। पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है। पाप प्रवृतियों के परित्याग से आत्मा का उद्धार होता है। कुछ लोग सुन्दर वेशभूषा सहभोजनादि को आत्मा के उत्कर्ष का अंग सोचते हैं, यह योग्य बात नहीं है। आत्मा के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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