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चारित्र चक्रवर्ती शिखरजी में पंचकल्याणक का निश्चय __इस प्रकार धन के द्वारा मनोविकार आना चाहिए था, किन्तु आचार्यश्री के चरणों के सत्संगसे उनकी आत्मा में स्वयं केभाव हुए कि इस द्रव्य को शिखरजी में जिनेंद्रपंचकल्याणक महोत्सव रूप महापूजा में लगा देना अच्छा होगा। गुरुचरणप्रसाद से जो निधि आई है उसे उनके पुण्य चरणों के समीप ही श्रेष्ठ कार्य में लगा देना चाहिए, ऐसा पवित्र भाव उनके चित्त में उदित हुआ। ऐसा होना पूर्णतया स्वाभाविक है। सबका मुक्ति-स्थल सम्मेदाचल को पहुंचने का दृढ़ निश्चय है, मुक्ति के महान आराधक संतों के चरणों का सान्निध्य है, अतः मुक्त हस्त हो मुक्ता की कमाई को मुक्त भूमि में व्यय करना अच्छा प्रतीत हुआ। यह आश्चर्य की बात नहीं है ? भवितव्यता के समान बुद्धि होती है। संघपति को महान् पुण्य के सिवाय अपार यश को भी कमाना है, इसलिए उस आय को धर्म का प्रसाद सोचकर इन्होंने शिखरजी में पंचकल्याण महोत्सव में व्यय करने का पक्का संकल्प किया। किन्तु परिस्थिति अद्भुत थी। अभी दो माह में ये महाराज के साथ शिखरजी पहुंच सकेंगे फिर महोत्सव की कैसे शीघ्र व्यवस्था हो सकेगी यह समस्या कठिन दिखती थी।
पुण्योदय से पुण्यात्माओं को सहज ही सभी अनुकूल वस्तुओं का सान्निध्य प्राप्त होता है। जवेरी परिवार ने सेठ राव जी सखाराम जी दोसी सोलापुर वालों के साथ परामर्श किया। नागपुर में उस समय विदर्भ और महाकौशल की बहुत जनता गुरुदर्शन को गई थी। हमारे पिता (सिंघई कुंवरसेनजी) भी नागपुर सपरिवार गुरुदेव के दर्शनाथ पहुंचे थे। वहाँ उनके साथ गंभीर परामर्श हुआ कि न्यूनतम समय में श्रेष्ठ कार्य को किस प्रकार सुन्दर तथा भव्य रूप में सम्पन्न किया जाए । विचार-विमर्श के बाद सेठ दाडिमचंद जी संघपति, सेठ रावजी भाई तथा हमारे पिताजी का पंचकल्याणक व्यवस्था के लिए जैन समाज कलकत्ता से सहयोग लेने तथा अन्य व्यवस्था के उद्देश्य से कलकत्ता एवं शिखरजी जाने का निश्चय हआ। __रावजी भाई के साथ दाडिमचंदजी का सिवनी आना हुआ। यहाँ विशाल मनोज्ञ तथा भव्य जिनमंदिर की वंदना कर उनको बड़ा आनंद प्राप्त हुआ। सिवनी मनोज्ञ जिनालयों का दर्शन कर सभी लोग आनंदित होते हैं। सन् १९७० में ग्वालियर की राजमाता महारानी विजया राजे ने सिवनी के मन्दिर का दर्शन किया । उन्होंने मुझसे कहा था कि इस दर्शन द्वारा उन्हें बहुत शान्ति प्राप्त हुई । सिवनी के बड़े मन्दिर जी में भगवान् पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा महान् सातिशयता सम्पन्न है। यहाँ से संघपति जी हमारे पिताजी को साथ लेकर कलकत्ता गए। वहाँ प्रबंध व्यवस्था की योजना तथा आवश्यक कार्य कर वे वापिसी में काशी आए थे। हम उस समय वहां स्याद्वाद महाविद्यालय में न्यायशास्त्र का अध्ययन करते थे। वहां हमें पंचकल्याणक की मंगल वार्ता विदित हुई थी। भद्रपरिणामी
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