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________________ तीर्थाटन १६६ महत्वपूर्ण दृष्टि इस सम्बन्ध में व्यावहारिक दृष्टि से यह भी बात विचारणीय है कि अभी पंचम काल के इक्कीस हजार वर्षकाल में से केवल अढ़ाई हजार वर्ष व्यतीत हुए हैं। अभी १८५०० वर्ष पर्यन्त इस भरत भूमि में जिन शासन का सद्भाव रहेगा, धर्म का लोप नहीं होगा, ऐसी सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर भगवान की वाणी है, अतएव समर्थ पुरुष तथा चरित्रनिष्ट व्यक्ति उचित रीति से अनेकान्त विद्या का प्रकाश फैलावें, तो अनेक निकट संसारी जीवों का कल्याण कर सकता है। उपरोक्त कथन का भाव यह है कि पहले के समान प्रकाश फैलाने का अब काल नहीं है। अब तो ढलते सूर्य के समान स्थिति है फिर भी सम्यक्त्वी जीव मार्ग प्रभावना के हेतु पुरुषार्थ करता है, और सफलता न होने पर दुःखी नहीं होता है। नागपुर में आचार्य महाराज के असाधारण व्यक्तित्व के प्रभाव से बहुत धर्म प्रभावना हुई, इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस प्रकार की निष्कलंक चरित्रनिष्ट आत्मा हो तो सत्य धर्म की प्रभावना को कौन रोक सकता है ? हजारों श्रावकों ने अष्ट मूलगुणों को धारण करके व्रतों के द्वारा सुसंस्कृत होने के प्रतीकसम यज्ञोपवीत को भी धारण किया। भ्रष्टाचार का तीव्र निषेध उस समय शीतलप्रसादजी ने पुनर्विवाह को शास्त्र सम्मत बता अपने पतित प्रचार का कार्य प्रारंभ किया था, आचार्य श्री के प्रभाव से वह असत्प्रचार जनता में अपना विष न फैला पाया। इस प्रकार शील धर्म के रक्षण में लोगों की दृढ़ता और बढ़ी। शुभ समाचार नागपुर में धर्म प्रभावना की चंद्रिका प्रकाश दे रही थी, तब एक मधुर शुभ समाचार संघपति सेठ पूनमचंद घासीलाल जी जबेरी को बंबई के तार से ज्ञात हुआ कि आपको एक लाख रूपया का लाभ हुआ है। इससे उनको तो हर्ष होना स्वाभाविक है। धार्मिक समाज को भी बड़ा आनंद हुआ, क्योंकि ऐसे धर्मात्माओं और परोपकारी पुरुषों का अम्युदय कौन नहीं चाहता है ? यह सन् १९२८ की बात है, जब रुपया बहुमूल्य गिना जाता था। आज की स्थिति दूसरी हो गई है। इस समाचार ने संघपाति के चित्त में न अहंकार उत्पन्न किया और न उस द्रव्य के प्रति तृष्णा का भाव ही उनके हृदय में जगा। यद्यपि साधारण मनुष्य में विकृति आए बिना नहीं रहती है। इस प्रसंग में रवीन्द्रनाथ टैगोर की यह सूक्ति बड़ी महत्वपूर्ण प्रतीत होती है"भीख की झोली रुपये की थैली से बोली कि क्या तू यह भूल गई कि हमारा और तेरा एक कुटुम्ब है ? रुपये की थैली ने कहा कि मेरी थैली में जो कुछ है, वह यदि तुम्हारी झोली में चला जाय, तो तुम भी निश्चय ही परिवारिक संबंध भूल जाती।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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