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________________ १६८ चारित्र चक्रवर्ती उनने कहा- “महाराज! शांति तो है न?" महाराज ने उत्तर दिया-"त्यागी को यदि शांति नहीं, तो त्यागी कैसे ?" जैन धर्म की घटती का कारण एक भाई ने पूज्यश्री से पूछा-“महाराज जैनधर्म की घटती का क्या कारण है जबकि उसमें जीव को सुख और शांति देने की विपुल सामग्री विद्यमान है ?" । ___ महाराज ने कहा- "दिगम्बर जैन धर्म कठिन है। आजकल लोग ऐहिक सुखों की तरफ झुकते हैं। मोक्ष की चिन्ता किसी को नहीं है। सरल विषय पोषक मार्ग पर सब चलते हैं, जैनधर्म की क्रिया कठिन है। अन्यत्र सब प्रकार का सुभीता है। स्त्री आदि के साथ भी अन्यत्र साधु रहते हैं। अन्यत्र साधु प्यास लगने पर पानी पी लेगा, भूख लगने पर भोजन करेगा। ४६ दोषों को टालकर कौन भोजन करता है ?" ___ महाराज ने कहा- "इसी कारण दि. जैन साधुओं की संख्या अत्यंत कम है। दिगम्बर जैन मुनि प्राण जाने पर भी मर्यादा का पालन करते हैं। धूप में बिना जल ग्रहण किए मर गए, तो परवाह नहीं, किन्तु साधु पानी नहीं पियेगा, वह संयम का पूर्ण रक्षण करेगा।" इस संबंध में स्वामी समंतभद्र ने युक्त्यानुशासन में लिखा है कि जिनेन्द्र का शासन दया, दम, त्याग, समाधि आदि के प्रतिपादन की अपेक्षा अद्वितीय है, फिर भी जगत उसका पालन क्यों नहीं करता है ? उसके दो कारण हैं। साधारणकारण तो है काल की विपरीतता। असाधारण कारण यह है कि श्रोताओं का अंतःकरण दर्शन मोहनीय के उदय से आक्रांत है। अतः उनमें धर्म की जिज्ञासा का अभाव है। दूसरा कारण है प्रवक्ता का वचनाशय। सामर्थ्य सम्पन्न, सच्चरित्र, सम्यक् श्रद्धावान, वक्ताओं की प्राप्ति दुर्लभ है। इस कारण तार्किक समंतभद्र की दृष्टि से श्रेष्ठ होते हुए भी जैन शासन का सम्यक् प्रसार नहीं होता है। उनका महत्वपूर्ण अनुभव इस पद्य में व्यक्त किया गया है : "भगवन् आपके अनेकांत सिद्धांत के एकाधिपत्य रूप लक्ष्मी की प्रभुता के सामर्थ्य के अपवाद का कारण कलिकाल है अथवाश्रोताओं का कलुषित अंतःकरण है अथवा वक्ता का वचनाशय है अर्थात् अनेकांत विरुद्ध कथन है।" समंतभद्र स्वामी की दृष्टि से सुयोग्यवक्ता आज के भोग-विलास प्रचुर जगत् में लोकहित सम्पादन करने की क्षमता धारण करता है, किन्तु ऐसा निपुण उपदेष्टा आज दुर्लभ हो रहा है। पक्षपात की दुर्गन्ध वाले उपदेशक बन श्रोता के मानस को उज्ज्वल प्रकाश नहीं दे पाते, सच्चरित्र उपदेष्टा का कथन सप्राण होता है। १. कालः कलिर्वा कलुषाशयोवा, श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनाशयो वा। त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मी प्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ॥५,“युक्त्यानुशासन" ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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