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________________ १६२ चारित्र चक्रवर्ती धाइवोही धंधा अरु कंधा माहि लग्यो जोत, बार बार आर सहै कायर है मन को। भूख सहै प्यास सहै दुर्जन को त्रास सहै, थिरता न गहै न उसास लहै छिन को। पराधीन घूमै जैसो कोल्हू को कमेरो बैल, तैसोई स्वभाव भैया जगवासी जन को ॥ ७ ॥ ज्योतिर्मय मार्ग उपनिषद् की प्रार्थना में कहा गया है-“तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय'" (माता! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल, मृत्यु से अमृत पद को प्राप्त करा )। उसका मार्ग सर्वांगीण अहिंसा का पालन करना है। जब तक संपूर्ण छोटे बड़े जीवों के प्राणों के प्रति सम्मान का भाव नहीं जागृत होता है, तब तक बकराज की भांति अहिंसा की बाहरी नकल जीव को श्रेयमार्ग पर नहीं पहुंचाती है। अपनी दुष्टवृत्ति शोधन किये बिना लोग चिकित्सासम अहिंसा धर्म रूप औषधि को ही बुरा कहते हैं, जैसे अकुशल कारीगर अपने काम करने के औजारों को बुरा बताता है, इसी प्रकार अपनी हीन प्रवृत्तियों को न सुधारकर अज्ञ व्यक्ति कल्याणप्रद धर्म को दोषपूर्ण कहने लगते हैं। विवेकी व्यक्ति ऐसे भ्रमजाल में न फंसकर सत्पथ में संलग्न रहते हैं। उस श्रेयोमार्ग का दर्शन इन श्रमणों की जीवनचर्या में विद्यमान रहता है। इनके द्वारा हिंसादि पापों के परित्याग का जो उपदेश दिया जाता है, वह लोगों के नैतिक स्तर को स्थायी रूप से इतना उन्नत कर देता है जितना राज्य का कठोरतम दंड भी नहीं कर पाता है। दंड की भीति अन्तःकरण अथवा मनोवृत्ति को नहीं बदल सकती है। किन्तु इन योगियों का विशुद्ध जीवन सत्पात्रों के हृदय का परिवर्तन करके उसे आलोकपूर्ण कर देता है, फिर उसकी आत्मा स्वयं उसके लिए मार्गदर्शक बन जाती है। इन श्रमणों के निमित्त से लोक-कल्याण के लिए अनेक संस्थाएं खुल जाती हैं, गरीबों के हितार्थ बड़े-बड़े उपयोगी काम हो जाते हैं। इस प्रकार यदि सूक्ष्मता से देखा जाय तो एक व्यक्ति मुनिपद को धारण कर अगणित व्यक्तियों का लौकिक, नैतिक, तथा आध्यात्मिक हित करता है। उस लौकिक हित का परमार्थ जीवन से परंपरागत संबंध रहता है। लातूर अपने निश्चय के अनुसार गुन्जोटी से समारोह पूर्वक संघ का प्रस्थान हो गया। पौष वदी दूज को संघ लातूर पहुंचा। यहां सेतवाल समाज के भट्टारक विशालकीर्तिजी की गद्दी है। उन्होंने आचार्यश्री को प्रणामांजलि अर्पित की तथा संघपतिजी को मानपत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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