SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६१ तीर्थाटन विजय के कार्य में संलग्न आत्मा की दौड़ धूप नहीं दिखती है, अतः स्थूल दृष्टि वालों को यह क्रिया शून्यता सी प्रतीत होती है।" उनके विषय में वे कहते हैं, "यह निश्चेष्ट भाव या निठल्लापन नहीं है। संसार की दृष्टि से वह जड़ता जान पड़ती है। परन्तु वास्तव में वह जड़ता नहीं है, जैसे पहिये के अत्यंत घूमते रहने पर वह दिखाई नहीं पड़ता, वैसे ही वह अनंत गति निश्चेष्टता सी जान पड़ती है।" (स्वदेश) मुनियों का व्यस्त जीवन __इन मुनिजनों के समीप जाकर देखने पर पता चलता है, कि इनका प्रत्येक क्षण अनमोल है। उसका अपव्यय करना वे नहीं जानते। अपने जीवन के क्षणों को निद्रा के लिए देते हुए भी इनको बड़ा संकोच होता है, अतः प्रयत्न करते हैं कि कम से कम नींद आवे। इससे निद्रा विजय तप की भी साधना करते हैं। ये क्रोध, मान, मत्सर, कामादि अन्तरंग विकारों का उन्मूलन कार्य किया करते हैं, जिससे आत्मा परमपद को प्राप्त करे। आचार्य शांतिसागर महाराज ने इस निद्रा जप-तप की भी खूब साधना की थी। जप का काल एक दिन मैंने (७ दिसंबर सन् १९५१ के) सुप्रभात के समय आचार्य महाराज से पूछा था-“महाराज! आजकल आप कितने घंटे जाप किया करते है ?" __ महाराज ने कहा था - रात को एक बजे से सात बजे तक, मध्याह्न में तीन घंटे तथा सायंकाल में तीन घटे जाप करते हैं। इससे सुहृदय सुधी सोचसकता है कि इन पुण्य श्लोक महापुरुषों का कार्यक्रम कितना व्यस्त रहता है। ये जीवन से भागते हैं यह कथन असत्य की पराकाष्ठा है, जैसे सूर्य को कलंक का पुंज कहना। सत्य कथन तो यह होगा कि ये मृत्यु से, आत्मा की मृत्यु से दूर जाते हैं। It is not escape from life, rather it is escape from death. अतः श्री नेहरू का आक्षेप पूर्णतया अपरिचय मूलक है। कोल्हू का बैल प्रबुद्ध मानव की चेष्टा कोल्हू के बैल के समान जुते रहने सदृश नहीं रहती। पुद्गल की संगति से यह इइअज्ञ जीव कोल्हू के बैल सदृश क्रियाशीलता में जुटा रहता है। उससे उसका कुछ हित नहीं होता है। कविवर बनारसी दास जी ने लिखा है कि मोह के संसर्ग वश जीव की कोल्हू के बैल के सदृश स्थिति होती है, किन्तु मुनिजन मानव के समान विवेकपूर्ण क्रिया करते हैं। वे बैल को भला अपना आदर्श क्यों बनावेंगे? उस बैल का चित्रण कविवर बनारसीदास जी ने नाटक समयसार में इस प्रकार किया है - पाटी बंधे लोचन सों संकुचे दबोचनि सों, कोचनि को सोच सो निवेदे खेद तनको। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy