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________________ १४६ चारित्र चक्रवर्ती डालने को आगे आई, तो मच्छर के अस्तित्व का पता न लगा, अतः वादी की अनुपस्थितिवश वह मुकदमा खारिज कर दिया गया। संघ का उत्तरापथ की ओर प्रस्थान अब “ॐ नमः सिद्धेभ्यः"कह सन् १९२७ की मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को प्रभु का स्मरण कर चतुर्विध संघ सम्मेदाचल पारसनाथ हिल की वंदनार्थ रवाना हो गया। अभी लक्ष्यगत स्थल को पहुंचने में बहुत देर है, यात्रा भी पैदल है, किन्तु पवित्र पर्वतराज की मनो मूर्ति महाराज के समक्ष सदा विद्यमान रहती थी कारण दृष्टि उस ओर थी। संकल्प भी तद्रूप था। आत्मा पर्वतराज के उन्मुख थी। प्रारम्भ में लगभग दो सौ नर नारियों, साधु साध्वियों समलंकृत संघ था। आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के समान निर्ग्रन्थ मुद्राधारी रत्नत्रय समलंकृत मुनित्रयी के मंगल नाम नेमिसागर महाराज, वीरसागर महाराज, अनंतकीर्ति महाराज थे। पायसागर नाम से भूषित ऐलक पदाधिष्ठित तीन श्रेष्ठ श्रावक ऐनापुर, गोकाक तथा शियापुर के थे। नाम और पद में तीनों ही समान थे। क्षुल्लक मल्लिसागर गलतगेवाले, क्षु. पायसागरजी जलगांव वाले व क्षु. अनंतकीर्ति करवी शियापुर वाले भीथे। क्षुल्लिका माता शांतिमती, बा.ब्र.क्षु. चंद्रमती, क्षु. अनंतमती नाम की तीन क्षुल्लिकाएँ थी। एक ब्रह्मचारिणी बाई थी। ब्र. दादा धोंदे साँगली वाले, ब्र. आणप्प लिंगड़े, ब्र. म्हैसालकर, ब्र. पारिसप्पा धोंदे, ब्र. पायसागरजी उगारकर, ब्र. देवप्पना, ब्र. देवलाल ग्वालियर, ब्र. हजारीलाल एटा नाम के ८ ब्रह्मचारी बंधु थे। पं. नंदनलाल जी वैद्य भी साथ में थे। कुछ समय पश्चात् वे ही महानुभाव निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर रत्नत्रय की औषधि देकर आत्मा के रोग को दूर करते हुए आध्यात्मिक वैद्य के रूप में सुधर्मसागर महाराज नाम से सर्वत्र विख्यात हुए। पं. उलफतरायजी रोहतक वाले, कीर्तनकार श्री जिनगोंडा पाटील माँगूरकर, श्री गंगाराम आरवाड़े कोल्हापुर, परवारभूषण ब्र. फतेचंद जी नागपुर वाले भी साथ में थे। अपूर्व आनंद तथा सदा शुभोपयोग की प्रवृत्ति __ संघ में रहने वाले कहते थे, ऐसा आनंद, ऐसी सात्विक शान्ति, ऐसी भावों की विशुद्धता जीवन में कभी नहीं मिली, जैसी आचार्यश्री के संघ में सम्मिलित होकर जाने में प्राप्त हुई। आर्तध्यान और रौद्रध्यान की सामग्री का दर्शन भी नहीं होता था। निरंतर धर्मध्यान ही होता था। शुभोपयोग की इससे बढ़िया सामग्री आज के युग में कहां मिल सकती है ? वह रत्नत्रयधारियों तथा उपासकों का संघ रत्नत्रय की ज्योति को फैलाता हुआ आगे बढ़ता जाता था। संघ में सर्व प्रकार की प्रभावक उज्ज्वल सामग्री थी। मनोज्ञ जिनबिम्ब, बहुमूल्य नयानभिराम रजत निर्मित तथा स्वर्णशिल्प सज्जित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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