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________________ तीर्थाटन १४७ दैदीप्यमान समवशरण आदि के दर्शनार्थ सर्वत्र ग्रामीण तथा इतर लोगों की बहुत भीड़ हो जाती थी। हजारों व्यक्ति महाराज को देखते ही मस्तक को भूतल पर लगा प्रणाम करते थे । वे जानते थे- "ये नागाबाबा साधु परमहंस हैं। पूर्व जन्म की बड़ी कमाई के बिना इनका दर्शन नहीं होता है।" उन हजारों लाखों लोगों ने महाराज के दर्शन द्वारा असीम पुण्य का बंध किया। बंध का कारण जीव का परिणाम होता है। शुभ परिणामों से पुण्य का संचय होना जहाँ स्वाभाविक है, वहीं पाप का संवर होता है । वैभव सम्पन्न श्रावकों से सुसज्जित इस संघ का संध्या को जहां भी विश्राम होता था, ari बड़े दूर दूर के ग्रामवासियों के आवागमन का तांता लग जाता था। इससे जंगल में मंगल की कल्पना साकार बन गई थी । मंगलमय उद्देश्य को लेकर मंगलात्मक श्रमण समुदाय सुसज्जित संघ अन्वर्थतः मंगलमय दिखता था । जहां सूर्य अस्तंगत हुआ वहां आचार्य श्री आदि महाव्रती उच्चसाधुगण रुक जाते, अपनी कुटी में बैठकर आत्मध्यान में लीन हो जाते थे | योग्य समय पर विश्राम करते थे । प्रभात में सूर्योदय के प्रकाश से भूतल के आलोकित होते ही उनका विहार प्रारंभ हो जाता था। लगभग सात आठ मील पहुंचकर वे साधुगण शौचादि से निवृत्त होते थे। श्रावक और श्राविकाएं मोटर द्वारा पहले से वहाँ पहुंचकर आहार की पूर्ण तैयारी कर लेते थे। अस्थायी उपयोग के लिए तंबू वगैरह लग जाते थे। वहां भाग्यवान श्रावक उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों की प्राप्ति के हेतु द्वाराप्रेक्षण करते थे । तपस्वियों तथा उच्च श्रावकों आदि की दानरूप वैयावृत्य द्वारा सेवा की जाती थी। तत्पश्चात् त्यागी मण्डल मध्याह्न की सामायिक में निमग्न हो जाता था, तथा श्रावक लोग अपने भोजनादि कार्यों को करते थे । सामायिक पूर्ण होते ही महाराज का यंत्रवत् विहार आरंभ हो जाता था । प्रतिदिन लगभग ८ कोस जाने का क्रम रहता था । महाराज की आगम सम्मत प्रवृत्ति कोई-कोई यह सोचते हैं कि साधु को बहुत धीरे - धीरे चलना चाहिए। इस विषय में आचार्य महाराज से एक बार मैंने पूछा था कि "महाराज जल्दी चलने से क्या साधु को दूषण नहीं आता है ?” महाराज ने कहा- “यत्नाचार पूर्वक चलने से दूषण नहीं आता है । " वे आचारांग की आज्ञा के विरुद्ध रंचमात्र भी प्रवृत्ति नहीं करते थे । दुर्भाग्य की बात यह है कि उत्तरप्रांत में बहुत समय से मुनियों की परंपरा का लोप सा हो गया था, अतः मुनि जीवन सम्बन्धी आगम का अभ्यास भी शून्य सम हो गया, ऐसी स्थिति में अपनी कल्पना के ताने बनने वाले करणानुयोग, द्रव्यानुयोग शास्त्रों का अभ्यास करने वाले श्रावक मुनि जीवन के विषय में अपनी विवेक-विहीन आलोचना का चाकू चलाया करते हैं। ऐसे ही आलोचक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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