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चारित्र चक्रवर्ती मुक्ता का व्यापारी
इन्होंने सोचा-“आचार्य शांतिसागर महाराज से बढ़कर विशुद्ध चरित्र, रत्नत्रयालंकृत श्रेष्ठ पात्र और कौन मिलेगा ? अतः उनकी सेवा में शक्ति की परवाह भी न करके धन को मुक्त हस्त होकर लगा दो।" मुक्ता के व्यापारी होने से मुक्ता युक्त हस्त तो सदा ही रहा करता था, किन्तु वह मुक्ता के बंधनयुक्त रहता है, दान देते समय ही खुला हाथ होने से वह मुक्तहस्त कहा जाता है। धन कमाने का नशा किसे नहीं होता है, और बातों का भी नशा दुनियां में देखा जाता है, किन्तु धन खर्च करने का नशा जिन्हें देखने की इच्छा हो, वे गेंदनमलजी को उस समय देखते, जब वे संघ विहार के लिए प्रार्थना करने के पश्चात् नोटों के बंडल को ट्रंक में रखकर व्यवस्था करने वाले श्रावकों को सौंपते थे। उस समय वे न नोट गिनते थे और न उन श्रावकों से बिल मांगते थे, जैसा कि सामान्य तथा धनिकों की शैली होती है। इस प्रकार का खर्चा सचमुच बेहिसाब था, गणना रहित था। मालूम होता है, गेदनमलजी बंबई आते समय देश से लाई मात्र पूंजी को अपनी सोचते थे और शेष सबको श्रेष्ठ कार्य निमित्त लगाने की वस्तु मानते थे। रत्नाकार के पास से प्राप्त रत्नों की कमाई को रत्नाकार अर्थात् रत्नत्रय के आकार महामुनि की अर्चा निमित्त व्यय करना वे उचित समझते थे और सोचते थे,“ रत्नाकर ! त्वदीयं वस्तु, तुभ्यमेव समर्पये।" __ ऐसे हृदय के धनी गुरुचरण भक्त, पंचपरमेष्ठी की सतत आराधना में निरत श्रावकोत्तम सेठ पूनमचन्द घासीलाल जवेरी संघ के प्रमुख सेवक थे। सब उनको संघपति कहते थे, किन्तु वे अपने को संघ का सेवक सोचते थे। उनको वास्तव में संघ के पति, प्राण, स्वामी, संघसर्वस्व, आचार्य शांतिसागर महाराज दिखते थे। __ चातुर्मास पूर्ण होते ही रत्नत्रय धर्म की प्रभावना करने वाला धर्मसंघ पंचपरमेष्ठियों की वंदना कर प्रस्थान करने को उद्यत हो गया। दूर दूर के लोग गुरुदर्शन को आ गए। अब इन तपोनिधि गुरुराज का पुनः कब दर्शन होगा ऐसा दक्षिण की धार्मिक तथा भक्त जनता सोचने लगी। इन अकारण बंधु का वियोग बहुत समय के लिए हो रहा है, यह विचार कर उनका ममतापूर्ण हृदय बड़ा दुःखी हो रहा था। अनेक लोग तरुण, वृद्ध, नर, नारी, मंगलमय पंचपरमेष्ठी का स्मरण कर यही आकांक्षा कर रहे थे, कि पूज्यश्री की यात्रा सिद्धि संपन्न हो और पुनः दक्षिण प्रांत को गुरुराज का दर्शन लाभ हो। एक वृद्ध पंडितजी की मंत्र साधने की सलाह
एक नामांकित वृद्ध पंडित जी पूज्यश्री के समीप आए। सभा को प्रणाम कर बड़े ममत्व के साथ कहने लगे,“ उत्तर की जनता वक्र प्रकृति की है। वहां कभी दिगम्बर मुनियों का
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