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________________ तीर्थाटन १४३ पुण्यशाली जिनधर्म के प्रागढ़, श्रद्धालु और आचार्य शांतिसागर महाराज के चरणों में अनन्य अनुराग रखने वाले थे । उनके पास यदि पूंजी थी, तो पुण्य की संपत्ति थी । जिनेन्द्रदेव की स्तुति में कवि मनरंगलाल ने लिखा है : जाके धन तेरे चरन दोय, ता गेह कमी कबहूं न होय ॥ संघ संचालक का परिवार यथार्थ में उस समय संघ संचालक सेठ पूनमचंद घासीलाल जी के पास यही पूंजी ही वास्तविक पूंजी थी। इसका कारण है कि प्रतापगढ़ से व्यापार निमित्त में सं. १६६०, सन् १९०३ में बंबई आये थे । उस समय इनके पास शतक प्रमाण भी रजत मुद्राएं नहीं थी । दो वर्ष पर्यन्त चांदी की दलाली के पश्चात् घासीलाल जी ने अत्यन्त भाग्यशाली ज्येष्ठ पुत्र गेंदनमल जी के साथ मुक्ता की दलाली प्रारंभ की। संवत् १६६६ में गेदनमलजी तथा उनके अनुज दाड़िमचंद जी केवल दो सहस्त्र रुपया लेकर मोती लेने को अरबस्तान गए। वहां से आने पर मूलधन द्विगुणित हुआ । इनके मधुर स्वभाव, प्रेमपूर्ण वाणी, , सच्चे व्यवहार से मोतीबाजार में लोगों का प्रेम बढ़ता गया । इनकी साख खूब बढ़ती गई । अरबस्तान में भी इन जवेरी बंधुओं का प्रेम, प्रभाव तथा प्रमाणिकता का स्थान बढ़ता जाता था। जो भी इनके संपर्क में आता वह इनके गुणों के कारण अथवा पुण्य के कारण आकर्षित हो इनका ने बिना नहीं रहता था । व्यापार को चमकाने के लिये जो जो साधन आवश्यक माने जाते हैं वे सब यहां थे, इससे इनका विकास हो चला। इनके बढ़ते हुए वैभव की स्थिति प्रारंभिक अल्पतम पूंजी को देखते हुए पार्श्ववर्ती लोगों को विस्मित करती थी। सुभाषितकार का कथन अक्षरशः सत्य है " व्यापारे वसते लक्ष्मी ( व्यापार लक्ष्मी का वास है ) । " अंग्रेज कवि गोल्ड स्मिथ ने इसे बुरा कहा है- “जहां धन की वृद्धि होती है, वहां मनुष्यों के सद्गुणों का ह्रास होता है । " " यहाँ ऐसी स्थिति नही थी, देवपूजा, गुरुभक्ति, शास्त्र स्वाध्याय, संयम, दान आदि आवश्यक कार्यों में तीनों भाई सेठ गेदनमलजी, दाड़िमचंदजी, मोतीलालजी अंतःकरण पूर्वक संलग्न रहते थे । धन की मादकता ने उन पर कोई असर नही डाला था । लक्ष्मी ने उनके विवेक चक्षुओं बंद नहीं किया था, प्रत्युत लक्ष्मी ही पुण्य संयम करने वाले इस धर्मशील परिवार का अनुगमन कर रही थी । जैसे-जैसे धन बढ़ता था, वैसे-वैसे त्याग, परोपकार, धर्मभक्ति, नम्रता आदि सद्गुण वृद्धिंगत होते जा रहे थे। प्रतीत होता है, इनके हृदय में धन के विषय में यह बात घर कर गई थी कि पुण्यक्षय होने पर लक्ष्मी का नाश होता है, दान देने से धन कभी भी नष्ट नहीं होता, अतः सदा पात्र दान करना चाहिये । 1. where wealth accumulates and man decay. Jain Education International For Private & Personal Use Only -Deserted village www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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