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________________ १३३ चारित्र चक्रवर्ती कीथी, वहीं उत्तर के लोगों में शुद्ध आहार पाने में शिथिलता की वृद्धि देख उन्होंने शुद्रबल त्याग करने वालों के हाथ का जल पीने की प्रतिज्ञा लेने वाले के हाथ से आहार लेने का नियम रखा था। इस कार्य में जिन शूद्रभक्त लोगों को कटुता और दुर्भावना का सद्भाव दिखताथाउनकाभ्रमनिवारणआचार्यश्री की वर्तमानप्रवृत्तिसेहोजानाचाहिये।आजकल ब्राह्मणों तक में मांस और सुरापान का प्रचार होते देख उन्होंने यह नियम लिया था कि वे जिन भगवान की आराधना करने वाले के हाथ का जल ग्रहण करने वाले से ही आहार लेंगे। जब वे श्रेष्ठ योगी हैं, विचारक हैं, तो ऐसों के हाथ से दी गई भोज्य-सामग्री क्यों लेंगे, जो उनकी निर्मलता को क्षति प्रदान करे! उनका लक्ष्य आत्मा को परिशुद्ध बनाना है। स्वावलंबी जीवन की प्रेरणा उनके इस नियम से स्वावलंबी जीवन को बहुत प्रेरणा मिली थी। बड़े से बड़े परिवार के नरनारी अपने हाथ से भरकर पानी लाने में लज्जित नहीं होतेथे। झूठी प्रतिष्ठा के नाम पर परावलंबन की प्रवृत्ति को बदलकर स्वावलंबन की उज्वल शिक्षा प्रदान की थी। बापानी का अनुभव इस प्रसंग में एक जापानी बंधु की बात लिखना उपयोगी प्रतीत होता है। एक भारतीय बाबू के यहाँ बर्तन मांजने वाला नौकर नहीं आया था, इससे वे बड़े पेरशान से दिख रहे थे। इतने में पड़ोस के जापानी सज्जन उस बाब के यहां आये और अपने हाथ से उसके बर्तन मांजकर कहने लगे,“आपके लिये स्वावलंबन को भूल, सेवक का आश्रय लेना अमंगल रूप है।" उसने यह भी कहा-“महाशय ! चोरी दुराचरण आदि बुरे कामों के करने में संकोच होना चाहिए। अपने हाथ से अपना काम करने में संकोच करना बड़ी भारी भूल है। तुम्हारी यह बुरी नियत रहती है कि कोई हतभाम्य मिल जाय जो तुम्हारी सेवा करे। दूसरों को दास देखने वाला स्वार्थी स्वयं दासतापूर्ण जीवन बिताता है।" अब्रहमलिंकन ने यह कहा था मैं दास नहीं बनना चाहता इसलिए, मैं स्वामी भी नहीं बनूंगा।" इस दृष्टि से आचार्यश्री की प्रतिज्ञा विवेकी वर्ग के समक्ष शरदचंद्र के समान चमकती है। विपरीत दृष्टि तो उसे सदोष ही कहेगा। संयम तथा जिनेन्द्र भक्ति द्वारा अपूर्व दृष्टि लाभ कोई-कोई अपने को सर्व-विद्या पारंगत मान कहते हैं, “महाराज को ऐसी लोकोत्तर बातें कहाँ सूझती है, शास्त्र में ऐसी पद्धति नहीं देखने में आती है?" 1. As I would not be a slave, so I would not be a master, who ever differs from this to the extent of difference is no democract. ... -Radhakrishnan : 'Religion and society' P.89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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