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________________ -पद आचार्य - १३२ गये हैं। हमें अनेक धनी मानी परिवारों के व्यक्तियों का निकट जीवन देखने का मौका मिला है, जो समाज सेवा और लोक के अहंकार का मुकुट मस्तक पर बांधे हुए आनन्दित होते हैं । किन्तु प्राथमिक स्थिति वाले जैन के लिए कुल परम्परागत क्रिया ये उनमें विलुप्त होती जा रही हैं। ऐसे पतित आचरण के लोग इस हरिजन भाई के जीवन को अपना गुरु बनावें तो कल्याण हो । सन् १६६५ में कलकत्ते के प्रसिद्ध बेलगछिया के मंदिर में एक जिनेन्द्र भक्त मद्यमांस त्यागी हरिजन मिला था । सन् १६६६ में १०८ आचार्य देशभूषण महाराज की जन्मभूमि कोथली तालुका चिकोड़ी में एक सुशिक्षित हरिजन मिला, जो उनके तथा स्व. आ. पायसागरजी के उपदेश से प्रगाढ़ अहिंसाप्रेमी बना । क्षय रोग की अंतिम अवस्था में भी उसने मांस-मदिरा युक्त इंजेक्शनों को नहीं लिया। उसने हमें कहा था, " जगदम्बा ! अहिंसा और णमोकार मंत्र के कारण मेरा क्षय रोग दूर हो गया ।" सहभोज आदि से आत्मा का उत्थान मानना भ्रम है जिन्होंने साथ खाने पीने तथा वैवाहिक संबंध द्वारा आत्मा का उद्धार माना है, उनकी आत्मा पुद्गल के पंक में आकंठ निमग्न प्रतीत होती है, कारण आचार्य अमृतचंद ने तत्त्व को निवृत्ति रूप बताया है । भोग और विषय सेवन से आत्मा का उद्धार मानते वे जीव नरक - निगोद आदि में अनंत काल पर्यंत कष्ट पाया करते हैं। वह हरिजन भाई यद्यपि अब स्वर्गवासी हो गया है। किन्तु उसका कथन आज भी प्रकाश देता है। वह कहता था - " आचार्य महाराज ने मेरा सच्चा उद्वार कर दिया मेरी आत्मा बहुत सुखी है, मेरा उद्धार गुरु महाराज ने व्रत देकर कर दिया। उनके उपकार को मैं जन्म जन्मांतर में भी नहीं भूलूंगा। मेरी यह जरा भी लालसा नहीं है कि मैं बड़े लोगों के साथ भोजन करूं या वे मेरे साथ भोजन करें, इससे आत्मा का उद्धार क्या होगा ?" यथार्थ में आचार्यश्री का शरीर जिस तरह दिगम्बर है और उस पर कोई आवरण या आडंबर नहीं है, इसी प्रकार उनकी प्रवृत्ति और उपदेश में पाखंड, दंभ या प्रदर्शन पटुता नहीं है। उनके कार्यों में घृणा या दुर्भाव की कल्पना अज्ञान की बात है । वे सत्य और अहिंसा समर्थित आगमानुकूल कार्य करने में जनता के मत से प्रभावित नहीं होते थे । सच्चा नेता तो वही होता है जो बीमार जनता की कुरुचि की उपेक्षा कर उसे स्वस्थ बनाने वाली उपदेश रूपी औषधि देने में भय नहीं खाता। श्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि सच्चा नेता जनता की रूचि न देख, उसको कल्याण के पथ में लगाने में भय नहीं खाता है, जनकल्याण उसका ध्येय रहा करता है । धर्मनेता महाराज ने जहाँ दक्षिण के लोगों में कुदेवों (अन्यमतियों के आराध्य शासन देवों) की भक्ति रूपी रोग को देख, उसके त्याग रूपी औषधिदान द्वारा उनकी श्रद्धा निर्मल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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