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________________ १३१ चारित्र चक्रवर्ती उन्होंने कहा-“तुम कई मंजिलोंवाले भवनों में रहो और वे झोपड़ी में पड़े रहें। वे आवश्यक अन्नवस्त्र भी न पा सकें। इसकी फिकर न करके तुम उनके साथ खाने को कहते हो। साथ में खाने से आत्मा का उद्धार नहीं होता है। जीवन का उद्धार होता है पाप का त्याग करने से। उनको शराब, मांस, मधु सेवन का त्याग कराओ। निरपराधी जीव की हिंसा का त्याग कराओ। उनकी गरीबी का कष्ट दूर करो। प्रत्येक गरीब को उचित भूमि दो, इसके साथ शर्त हो कि वह मद्य, माँस, शिकार का त्याग करे तथा निरपराध जीवों का वध न करे। उसका जीवन ऊंचा उठाओ । शूद्रों का सच्चा उद्धार महाराज ने यह भी कहा- “बेचारे शूद्रों तथा गरीबों का उद्धार राजसत्ता कर सकती है। वह हमसे पूछे तो हम उनके उद्धार का सच्चा मार्ग बतावें।" महाराज ने जयपुर में जब चातुर्मास किया था, उस समय अस्पृश्योद्धासार के नाम पर बड़े-बड़े लोगों ने मेहतरों के यहां का मैला एक दिन साफ किया था, उस समय जयपुर का एक चतुर मेहतर कह रहा था- “महाराज ये लोग हमें कुछ लेते देते नहीं हैं और अब हमारी रोजी छीनने को भी तैयार हो रहे हैं। यदि इन्होंने हमारा काम शुरु कर दिया, तो हमारा जीवन कठिन हो जायेगा।" महाराज ने कहा- “जब हम निरन्तर एकेन्द्रिय जीवों तक का रक्षण करते हैं, तब बेचारे पंचेन्द्रिय मानव पर्यायवाले गरीब भाइयों के हित का ध्यान हमारे मन में स्वयं सदा आता है। उनका सच्चा उद्धार उनको सदाचार पथ में लगाने में और उनको भूमि देकर अजीविका की व्यवस्था करने में है।" उद्धार का भाव जीवन को पवित्र बनाना पूज्यश्री ने अपने उपदेश द्वारा अनेक हरिजनों का सच्चा उद्धार किया है। पाप प्रवृत्तियों का त्याग ही आत्मा को ऊंचा उठाता है। महाराज के प्रति भक्ति करने वाले बहुत से चरित्रवान हरिजन मिलेंगे। उन्होंने अपनी करुणा वृत्ति द्वारा सभी दीन दुःखी जीवों को सत्पथ पर लगाया है। लगभग आठ वर्ष पूर्व हमें शेडवाल (रत्नत्रयपुरी) में आचार्य महाराज का व्रतधारक शूद्र शिष्य मिला था। उसने मद्य मांस आदि का त्याग कर अष्टमूलगुण रूप व्रत लिये थे। वह रात्रि भोजन नहीं करता था, यद्यपि आजकल बड़ेबड़े धार्मिक परिवार के लोग लक्ष्मी के मद में आकर इस जैन कुल परम्परागत प्रसिद्ध क्रिया को भूल गये है। उस हरिजन भाई का जीवन बड़ा सुन्दर था। वह कहता था कि मैं अष्टमी चतुर्दशी को व्रत करता हूँ। आज के हरिजन भक्त बनने वाले जैन भाई ऐसे मिलेंगे जिन्हें दूसरों को व्रत पालन करते देख कष्ट होता है। इतने महान अव्रती वे बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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