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आचार्य-पद
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लम्बी सूची के द्वारा सिद्ध नहीं होता। गृहस्थ यदि स्वयं अशुद्ध आहार करे और साधु को लक्ष्य करके ही शुद्ध बनावे, तो वह भी योग्य नहीं है । अमृतचंद्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १७४ में लिखा है कि "कृतमात्मार्थं मुनये ददाति” श्रावक अपने लिए बनाये गये आहार को मुनिराज को दान करता है, अतः गृहस्थ को शुद्धाहार का भोजी होना आवश्यक है। आहार में सर्वज्ञ व्यापक तत्त्व के रूप में जल ही पाया जाता है, जल का नियम होने से अनेक प्रकार के अशुद्ध पदार्थों के सेवन का संबंध अनायास टूट जाता है। ऐसे अनेक कारण थे, जिन पर गहरा मनन चिंतनकर महाराज ने उत्तर की ओर विहार करते समय शूद्र-जल-त्याग की प्रतिज्ञा दातार के लिए आवश्यक नियम कर दिया।
इसी प्रकार सुसंस्कारों के प्रचारार्थ यज्ञोपवीत ग्रहण को भी आवश्यक बताया । आचार्यश्री की प्रतिज्ञा को प्रमादी, स्वच्छन्दता प्रेमी, विषयासक्त दोषदृष्टि से देखा करता है, किन्तु सज्जन पुरुष इसे महान् योगी की कल्याणमयी मंगल-साधना सोचा करते थे और तदनुकूल प्रवृत्ति करके स्वहित साधन करते थे ।
आचार्यश्री का प्राण आगम है । आगम तीर्थंकर भगवान की वाणी है। तीर्थंकर भगवान सर्वज्ञ होने पर ही धर्म की देशना करते हैं। उनके निर्दोष आगम के अनुसार आचार्यश्री ने नियमादि का प्रचार किया । किन्तु आज भी विषय लोलुपी राष्ट्रीय पद्धति
भक्तों की समझ में आचार्यश्री का उपर्युक्त नियम नहीं आयेगा व वे यही सोचेंगे कि यह आचरण आचार्यश्री के महान् औदार्य के अनुरूप नहीं है, इसमें तो शुद्रों के प्रति विद्वेष व्यक्त होता है । यह भ्रम है, अतः शूद्रों के उद्धार के विषय में पूज्यश्री के विचारों की चर्चा कर देना उचित जंचता है, जिससे पता लगेगा कि शूद्रों का सच्चा हितचिंतक तथा उद्धार करने वाला कौन है ?
हरिजनों पर प्रेम दृष्टि
एक बार महाराज से पूछा - "महाराज हरिजनों के उद्धार के विषय में आपका क्या विचार है ?"
महाराज कहने लगे - "हमें हरिजनों को देखकर बहुत दया आती है। हमारा उन बेचारों पर रंचमात्र भी द्वेष नहीं है। गरीबी के कारण वे बेचारे अपार कष्ट भोगते हैं। हम उनका तिरस्कार नहीं करते हैं। हमारा तो कहना यह है कि उन दीनों का आर्थिक कष्ट दूर करो, भूखों को रोटी दो, हेयोपादेय का बोध करवाओ। तुमने उनके साथ भोजन - पान कर लिया, तो इससे उन बेचारों का कष्ट कैसे दूर हो गया ? उन्होंने कहा - "भंगी आदि सब हमारे भाई हैं। सब पर दया करना जैनधर्म का मूल सिद्धांत है। अन्यमती सभी साधु भी हमारे भाई हैं। हम पूर्व में कई भव नीच पर्याय को धारण कर चुके हैं। हरिजनों के प्रति हमारा द्वेष- भाव नहीं है । "
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